मीमांसा शास्त्र में वाक्य एवं वाक्यार्थ सम्बन्धी सूक्ष्म तथा विशद चर्चाएँ बहुलता से प्राप्त होती हैं। यही कारण है कि इसकी प्रसिद्धि वाक्यशास्त्र के नाम से भी है। इस प्रस्थान में दो सम्प्रदाय अत्यन्त प्रसिद्ध हैं – 1. अभिहितान्वयवाद एवं 2. अन्विताभिधानवाद। वाक्यार्थ के अतिरिक्त भी इन दोनों के सम्प्रदायों के बीच अनेक दार्शनिक विषयों पर मतभेद प्राप्त होते हैं। सबसे पहले अभिहितान्वयवाद के सम्बन्ध में चर्चा प्रस्तुत की जा रही है –
मूल अवधारणाएँ–
अभिहितान्वयवाद के प्रतिष्ठापक एवं समर्थक श्लोकवार्तिककार श्री कुमारिलभट्ट तथा उनके अनुयायी पार्थसारथिमिश्र इत्यादि हैं। इनके अनुसार वाक्य पदघटित होता है। पदों के अर्थ अभिधा-शक्ति से प्राप्त ; वाच्य, अभिहित होते हैं। अभिहित पदार्थों का पारस्परिक सम्बन्ध; अन्वय आकांक्षा, योग्यता एवं सन्निधि जैसे तत्त्वों की सहायता से होता है। इस मत में पदार्थों का अभिधान; मुख्यार्थ का बोधन चूँकि अन्वय; संसर्ग से पहले होता है, अतः इसे अभिहितान्वयवाद कहते हैं। पदों की अभिधाशक्ति उनके अर्थ बोधन में ही क्षीण हो जाती है अतः उससे पदार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञापन नहीं हो सकता। पदार्थों का अन्वय अभिधा से अतिरिक्त अन्य शक्ति; लक्षणा के द्वारा माना जाता है। इस प्रकार इस मत में पदार्थ को अभिधेय तथा वाक्यार्थ को लक्ष्य स्वीकार किया जाता है -‘‘वाक्यार्थो लक्ष्यमाणो हि सर्वत्रैवेति नः स्थितिः।’’
पदार्थ पद के द्वारा वाच्य होते हैं तथा वाक्यार्थ पदार्थों के द्वारा लक्ष्य। अभिहितान्वयवाद सिद्धान्त का प्रमुख प्रतिपक्षी ‘अन्विताभिधानवाद’ है। इसके अनुसार पदों के अर्थ परस्पर अन्वित दशा में ही प्राप्त होते हैं। अतः अन्वय के लिये किसी अतिरिक्त शक्ति को मानने की आवश्यकता नहीं पड़ती। अन्विताभिधानवाद के खण्डन में भाट्ट मीमांसक निम्नोक्त तर्क देते हैं –
१) परस्पर अन्वित; सम्बद्ध दशा में अर्थों की प्राप्ति मानने पर पदों के गुण, क्रिया, जाति, द्रव्य आदि अर्थ मिश्रित अवस्था में प्राप्त हाने चाहिये। जबकि ये अर्थ हमें अलग-अलग भी प्राप्त होते हैं। फलतः इस पक्ष को मानने में प्रत्यक्ष का अपलाप होता है।
२) यदि वाक्य के सभी पद परस्पर जुड़े अर्थों को प्रदान करें, तो जितने पद होंगे उतने वाक्यार्थ भी होने लगेंगे। अतः प्रत्येक पद में वाक्य कहलाने की क्षमता हो जायेगी फलतः अनेक वाक्य स्वीकार किये जाने लगेंगे।
३) लोक व्यवहार के द्वारा शक्तिग्रह के समय बालक अन्वयरहित अर्थ का ही ग्रहण करता है। यदि ऐसा नहीं होता तो वह पदों का आवाप-उद्वाप करने में समर्थ नहीं हो पाता।
४) अन्विताभिधानवादी एकमात्र अभिधाशक्ति के द्वारा दो कार्य; पदार्थ एवं ; वाक्यार्थ का अभिधान मानते हैं। यह बात न्यायविरुद्ध है।
भाट्ट मीमांसकों के अनुसार वाक्यार्थबोध पदार्थबोध के बाद ही हो पाता है, अतः दोनों में कार्यकारण भाव मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।जैसे काष्ठ का प्रयोजन अन्ततः पाक क्रिया की सिद्धि ही है तथापि काष्ठ ‘पाक’ का साक्षात् कारण नहीं है। इसी प्रकार पद भी यद्यपि वाक्यार्थ के लिए ही उच्चरित होते हैं पर वाक्यार्थ का बोध साक्षात् नहीं कराते। जैसे लकड़ी अग्नि के माध्यम से भोजन पकाती है, इसी प्रकार ‘पद’ पदार्थों के द्वारा वाक्यार्थ का बोध कराते हैं। इस प्रकार पदार्थ ही वाक्यार्थ के अव्यवहित कारण हैं। पदों से सामान्य पदार्थों का ज्ञान होता है तथा आकांक्षा आदि के द्वारा अन्वय होने पर विशिष्ट अर्थ की प्राप्ति होती है। यह विशिष्ट अर्थ ही वाक्यार्थ होता है।
लक्षणा के लिए मुख्यार्थबाध आवश्यक है। अभिहितान्वयवादी इसका कारण तात्पर्य की अनुपपत्ति मानते हैं। पदों का अन्वयरहित-स्वतन्त्र अर्थ श्रोता द्वारा चाहे गये विशिष्ट अर्थ की पूर्ति नहीं करता – फलतः पदार्थ अनुपपन्न हो जाता है। पदार्थों में अन्वय के द्वारा विशिष्ट अर्थ की प्राप्ति लक्षणा शक्ति से होती है । इससे वक्ता का तात्पर्य पूरा हो जाता है तथा अनुपपत्ति का निवारण हो जाता है। पार्थसारथिमिश्र की निम्नोक्त कारिका अभिहितान्वयवाद को स्पष्टतः प्रतिपादित कर देती है –
‘‘तस्मान्न वाक्यं न पदानि साक्षाद् वाक्यार्थबुद्धिं जनयन्ति किन्तु।
पदस्वरूपाभिहितैः पदार्थैः संलक्ष्यतेऽसाविति सिद्धमेतत्।।’’
इस सिद्धान्त की मूल अवधारणाओं से परिचय के बाद हम देखते हैं कि आचार्य भर्तृहरि ने इसे किस प्रकार प्रस्तुत किया है –
भर्तृहरि द्वारा की गयी प्रस्तुति–
आचार्य भर्तृहरि, कुमारिल भट्ट एवं प्रभाकर मिश्र आदि मीमांसकों से न्यूनतम तीन शताब्दी पूर्ववर्ती हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत मीमांसा के सिद्धान्त अत्यन्त प्राचीन एवं अपेक्षाकृत प्रारम्भिक हैं। ध्यातव्य है कि भर्तृहरि ने कहीं भी ‘अभिहितान्वयवाद’ या ‘अन्विताभिधानवाद’ का कहीं नाम नहीं लिया। यह विभाजन वाक्यकाण्ड के टीकाकार पुण्यराज ने किया है। परवर्ती सभी विद्वानों ने इसका अनुसरण भी किया है। इस परम्परा के अनुसार भर्तृहरि ने अभिहितान्वयवाद सम्बन्धी तीन वाक्यार्थ-सिद्धान्त प्रस्तुत किये हैं। इनका विवरण अग्रिम पंक्तियों में प्रस्तुत किया जा रहा है –
१) संसर्ग-वाक्यार्थ
संसर्ग वाक्यार्थ पक्ष के अनुसार पदों से अन्वयरहित सामान्य अर्थ का अभिधान होने के बाद वाक्यगत अन्य पदार्थों से उनका अन्वय होता है। अन्वय द्वारा एक विशिष्ट अर्थ आता है, जिसे हम वाक्यार्थ की संज्ञा दे देते हैं । इस प्रकार इस मत को मानने वाले पदार्थ को वाक्यार्थ नहीं अपितु उनके विशिष्ट संसर्ग को वाक्यार्थ मानते हैं। पदों का अर्थ वाक्य में रहने पर भी उतना ही होता है जितना कि उनके वाक्य से अलग होने पर। पदार्थ सामान्य अर्थ होता है तथा जब वह दूसरे सामान्य-पदार्थों से सम्बद्ध होता है तब हमें संसर्गात्मक विशिष्ट-अर्थ वाक्यार्थ की प्रतीति होती है।
२) निराकांक्ष पदार्थ-वाक्यार्थ
निराकांक्ष पदार्थ-वाक्यार्थवाद के अनुसार ‘वाक्यार्थ’ वह ‘पदार्थ’ है जो सभी पदार्थों के साथ अन्वययोग्य तथा सामान्यरूप होता हुआ दूसरे पदार्थों के साथ आने के कारण आकांक्षा रहित एवं विशेष अर्थ में सिमट गया हो इस पक्ष में वाक्य एवं वाक्यार्थ के सम्बन्ध को अनुमान प्रमाण से प्राप्त माना जाता है। ‘सामान्य अर्थ वाला पदार्थ विशेष अर्थ में विश्रान्त, पर्यवसित या निराकांक्ष हो जाता है’ – इस कार्य से सम्बन्ध का अनुमान होता है। यह सम्बन्ध संसर्गमूलक नहीं अपितु असत्त्व जैसा होता है। संसर्गवाद की तरह यह पक्ष पदार्थों को साकांक्ष नहीं मानता। यहाँ पदार्थ दूसरे पदार्थों के साथ मिलकर निराकांक्ष हो जाते हैं। यह मत संसर्ग-वाक्यार्थ-पक्ष का एकदेश प्रतीत होता है।
३) प्रयोजन वाक्यार्थ
प्रयोजन वाक्यार्थ पक्ष के अनुसार किसी वाक्य में विभिन्न पदों का प्रयोग करते समय वक्ता का जो प्रयोजन होता है – वही वाक्यार्थ है। ‘‘अभिधेयः पदस्यार्थो वाक्यस्यार्थः प्रयोजनम्।’’
वाक्यार्थ वक्ता का आशय होता है। यह आशय आकांक्षा अथवा संसर्ग से नहीं अपितु वक्ता के तात्पर्य से जाना जाता है। पद अपने स्वतन्त्र अर्थों को अभिधा के माध्यम से देते हैं, जबकि वाक्यार्थ का निर्धारण ;अर्थात् पदों का संसर्गजन्य अर्थ विवक्षा के आशय से होता है। यह मत अभिहितान्वयवाद का प्राचीन स्वरूप जान पड़ता है जिसमें तात्पर्यार्थ को वाक्यार्थ के रूप में ग्रहण करते हैं।
अभिहितान्वयवाद की समीक्षा
शब्दों में तथाकथित शक्तिग्रहण संवाद के माध्यम से ही होता है। तथा संवाद हमेशा वाक्यात्मक होता है। संवाद के अन्तर्गत हमें वाक्य के अतिरिक्त पद या वर्ण की अलग प्रतीति नहीं होती। ऐसी स्थिति में यदि मीमांसक पद एवं वर्ण को स्वतन्त्र एवं सार्थक इकाई मान लेते हैं तो यह निश्चित रूप से प्रत्यक्ष की उपेक्षा तथा अपलाप है। भर्तृहरि यहाँ सामान्य लौकिक व्यवहार का तर्क देते हैं –
‘‘न लोके प्रतिपतृणामर्थयोगात् प्रसिद्धयः। तस्मादलौकिको वाक्यादन्यः कश्चिन्न विद्यते।।’’
आचार्य को इस मान्यता पर कड़ी आपत्ति है कि शब्द पहले सामान्य अर्थ को देते हैं तत्पश्चात् विशेष को। क्योंकि जिस शब्द ने सामान्य अर्थ को देना स्वीकार कर लिया, वह उस अर्थ को छोड़ नहीं सकता। यदि शब्द उस सामान्य अर्थ को छोड़ भी दे तो वह अर्थ कहाँ गया? इसका उत्तर वादी के पास नहीं है।
अभिहितान्वयवादी के अनुसार वाक्य का अर्थ पदार्थों से नहीं अपितु उनके संसर्ग नामक तत्त्व से जाना जाता है। इसका अर्थ हुआ कि वाक्यार्थ संसर्ग से प्राप्त होता है शब्द से नहीं। वाक्यार्थ के अशाब्द होने से पदार्थ भी अशाब्द हो जायेगा। ऐसा होने पर शब्द एवं अर्थ का नित्य सम्बन्ध खण्डित हो जायेगा, जो मीमांसकों के भी विरुद्ध है –
‘‘अशाब्दो यदि वाक्यार्थः पदार्थो{पि तथा भवेत्।
एवं सति च सम्बन्धः शब्दस्यार्थेन हीयते।।’’
इस दोष से बचने के लिए पूर्वपक्षी शब्दों में ही अन्वयशक्ति नहीं मान सकता क्योंकि यह उसके विरोधी अन्विताभिधानवादी का मत है। प्रयोजन को यदि वाक्यार्थ माना जाय तो वाक्यों का पारस्परिक-सम्बन्ध ठीक नहीं बैठेगा। प्रयोजन का स्वरूप मानसिक होता है, अतः उसका निश्चय एवं उसके स्वरूप का अवधारण भी असम्भव है। यह वाद केवल श्रोता की दृष्टि से विचार करता है। अभिधान के पूर्व वक्ता के मानसिक जगत् की प्रक्रियाओं का स्पर्श भी नहीं किया गया है। अतः यह मत वस्तुतः एकांगी ही है।
इस प्रकार अभिहितान्वयवाद के अनुसार वाक्यार्थ को सखण्ड एवं लक्ष्य मानना सदोष एवं गौरव-पूर्ण है।
2. अन्विताभिधानवादः मूल अवधारणाएँ तथा भर्तृहरि द्वारी की गयी प्रस्तुति
अभिहितान्वयवाद के प्रतिपक्षी अन्विताभिधानवाद मत के व्याख्याता श्री प्रभाकर मिश्र हैं। इनका दूसरा नाम ‘गुरु’ भी है, जिसके आधार पर इस मत को ‘गुरुमत’ भी कहा जाता है। इस मत की मूल अवधारणाएँ तथा वाक्यपदीय में इसके सम्बन्ध में की गई चर्चा प्रस्तुत है-
मूल अवधारणाएँ–
प्रभाकर वाक्यार्थ का कारण पदों को ही मानते हैं , पदार्थों को नहीं। इनके अनुसार पदार्थ ही वाक्यार्थ हैंऋ वाक्यार्थ पदार्थ से भिन्न नहीं है –
‘‘प्रधानगुणभावेन लब्धान्योन्यसमन्वयान्।
पदार्थानेव वाक्यार्थं संगिरन्ते विपश्चितः।।’’
पदार्थ पदों से सर्वदा अन्वित परस्पर सम्बद्ध रूप में प्राप्त होते हैं। इन अन्वय सहित पदार्थों को ही वाक्यार्थ कहते हैं।
वाक्यार्थ बोध की प्रक्रिया में सबसे पहले हमारे पास पद उपस्थित होते हैं। पदार्थों का बोध तथा वक्ता का तात्पर्य पद ही स्पष्ट करते हैं। फलतः वाक्यार्थ के बोध का कारण भी इन्हें ही माना जाना चाहिए। पदों की शक्ति तो पदार्थ का ज्ञान कराने मात्र में समाप्त हो जाती है। यदि पदार्थों में परस्पर अन्वय की शक्ति को पदों में न मानें तो अन्वय के लिए दूसरी शक्ति लक्षणा स्वीकार करनी पड़ेगी। यह प्रक्रिया गौरवपूर्ण होगी। अतः पदों में स्वार्थ एवं वाक्यार्थ दोनों की समेकित शक्ति माननी चाहिए –
‘‘पदैरेवान्वितस्वार्थमात्रोपक्षीणशक्तिभिः। स्वार्थाश्चेद्बोधिता बुद्धौ वाक्यार्थोऽपि तथा सति।।’’
भाट्टमत में शाब्द-बोध के लिए तीन शक्तियाँ माननी पड़ती हैं। 1. पदों की पदार्थाभिधान शक्ति, 2. पदार्थों की वाक्यार्थ-बोध कराने वाली शक्ति तथा 3. वाक्यार्थ को पुनः पद से सम्बद्ध करने वाली शक्ति। जबकि प्रकृत मत में केवल एक शक्ति पदों में अन्वित-अर्थ को बताने वाली से प्रयोजन सिद्ध हो जाता है – ‘अन्वयार्थगृहीतत्वान्नान्यां शक्तिमपेक्षते।’
भर्तृहरि द्वारा की गयी प्रस्तुति
१) संसृष्टवाक्यार्थवाद
अन्विताभिधानवाद के अन्तर्गत विद्वान् ‘आदिपद’ तथा ‘साकांक्ष एवं पृथक्-पृथक् सभी पदों’ को वाक्य मानते हैं। ये विद्वान् संसृष्टवाक्यार्थवादी हैं। इनके अनुसार पदार्थ वाक्य में स्थित अन्य पदार्थों से सम्बद्ध संसृष्ट,अन्वित होकर ही अस्तित्व में आते हैं। पूर्वोक्त संसर्गवाद के अनुसार पहले वाक्यस्थित पदों के अन्वयरहित अर्थ आते हैं तत्पश्चात् उनका संसर्ग अन्वय होता है। संसर्ग से प्राप्त नवीन एवं विशिष्ट अर्थ ही वाक्यार्थ हैं। जबकि संसृष्टवाद में पदार्थ दूसरे पदों के अर्थों से सम्बद्ध होकर ही प्रतीत होते हैं। अतः पदार्थों का परस्पर भाव ही वाक्यार्थ है। भर्तृहरि दोनों का अन्तर स्पष्ट करते हैं –
‘‘पूर्वैरर्थैरनुगतो यथार्थात्मा परः परः। संसर्ग एव प्रक्रान्तस्तथाद्येष्वर्थवस्तुषु।।’’
इस मत के अनुसार वाक्यार्थ पहले ही पद से प्रतीत होने लगता है, क्योंकि उसका अर्थ अन्य पदार्थों से संसृष्ट होकर भासित होता है। परन्तु यह वाक्यार्थ चूँकि अस्पष्ट सा होता है, अतः उसे स्पष्ट करने के लिए अन्य पदों का प्रयोग करते हैं – ‘व्यक्तोपव्यञ्जना सिद्धिरर्थस्य प्रतिपतृषु।
उदाहरण के लिए ‘द्वारम्’ शब्द ‘द्वारम् पिधेहि’ इस सम्पूर्ण वाक्य के अर्थ को स्पष्ट करने में समर्थ है।
प्रत्येक पदार्थ को वाक्यार्थ मानने वाले भी संसृष्ट वाक्यार्थवादी हैं, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ अन्य पदार्थों के साथ अन्वित होकर सम्पूर्ण अर्थ को प्रदान करता है – ‘‘तेषां तु कृत्स्नो वाक्यार्थः प्रतिभेदं समाप्यते।’’
२) क्रियावाक्यार्थवाद
क्रिया पद को वाक्य मानने वाले विद्वानों के अनुसार ‘क्रिया’ का अर्थ ही वाक्यार्थ है। इनके अनुसार वाक्य में प्रधानता प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति की होती है। ये दोनों क्रिया के द्वारा ही व्यक्त होती हैं। अतः वाक्य में क्रियापद का अर्थ ही प्रधानता से प्रतीत होता है। शेष नामपदों के अर्थ गौण होने के नाते क्रियार्थ के विशेषण की तरह भासित होते हैं। नाम पदों के न रहने पर भी क्रियार्थ उन्हें आक्षिप्त करके सम्पूर्ण वाक्यार्थ को स्पष्ट कर देता है – ‘‘आख्यातशब्दे नियतं साधनं यत्र गम्यते। तदप्येकं समाप्तार्थं वाक्यमित्यभिधीयते।।’’
ज्ञातव्य है कि क्रिया पदों एवं संज्ञा पदों में स्वाभाविक-साकांक्ष सम्बन्ध होता है। एक के अनुपस्थित रहने पर दूसरा उसे आक्षिप्त कर लेता है। यद्यपि नाम पदों के साथ नियत सम्बध होने के नाते क्रिया पद अकेले ही वाक्यार्थ का ज्ञान कराने में समर्थ हैं तथापि क्रिया के अतिरिक्त जो अन्य पद प्रयुक्त किये जाते हैं वे वाक्यार्थ को और स्पष्ट करने के लिए होते हैं – ‘‘क्रिया क्रियान्तराद् भिन्ना नियताधारसाधना। प्रक्रान्ता प्रतिपतृणां भेदाः सम्बोधहेतवः।।’’
समीक्षा
अन्विताभिधानवाद पदों के स्वतन्त्र अर्थों को अल्प महत्त्व देते हुए वाक्यार्थ को एक इकाई के रूप में मानता है, इसलिए वैयाकरणों की दृष्टि में अभिहितान्वयवाद की अपेक्षा यह कम दोषपूर्ण है। तथापि वाक्यार्थ बोध की इस प्रक्रिया में भी कुछ तार्किक स्खलन अवश्य आते हैं। इसके अनुसार वक्ता अर्थों का अन्वय करके उनका अभिधान करता है परन्तु श्रोता के पक्ष में वाक्यार्थ-बोध की क्या प्रक्रिया होती है, इस पर अन्विताभिधानवादियों ने स्पष्ट प्रकाश नहीं डाला है। इस प्रकार यह सिद्धान्त भी एकांगी ही है। दूसरे, यदि पदार्थ-बोधन की शक्ति पद में है तो तर्कसम्मत बात यह है कि वाक्यार्थ बोधन की शक्ति को वाक्य में माना जाये। तीसरे, पदों का अर्थ पदार्थसामान्य जाति माना गया है परन्तु इनके अनुसार पदों से विशिष्ट अन्वित अर्थ प्राप्त होता है। यह मीमांसा के जाति-अर्थवाद का स्पष्ट व्यभिचार है और वदतोव्याघात की तरह है। सामान्य एवं विशिष्ट अर्थ को एक साथ देना असम्भव सी बात है। चौथे, क्रिया जो स्वयं अपूर्ण स्वभाव वाली साकांक्ष होती है, वह पूर्ण अखण्ड, निराकांक्ष अर्थ कैसे दे सकती है। पाँचवें, इनके अनुसार प्रारम्भिक पद वाक्यार्थ बोध करा सकता है। ऐसा मानने पर ‘रामः गृहं गच्छति’ इस वाक्य में प्रत्येक पद वाक्य बन जायेगा, क्योंकि संस्कृत में तीनों पदों से वाक्य प्रारम्भ हो सकता है। इस प्रकार अव्यवस्था एवं अनिश्चितता व्याप्त हो जायेगी। वास्तविक समस्या यह है कि आदि पद, क्रिया पद अथवा प्रत्येक स्वतन्त्र पदों के अर्थ जो स्वतः अपूर्ण हैं, पूर्ण स्वरूप वाले वाक्यार्थ कैसे कहे जा सकते हैं? इस प्रकार यह मत भी वाक्यार्थ प्रक्रिया को सन्तोषजनक रीति से समझाने में असमर्थ है।
सम्प्रेषण की प्रक्रिया सदैव द्विपक्षीय हुआ करती है। इस सार्वजनीन तथ्य की इन उपर्युक्त मतों में उपेक्षा हुई है। अतः अखण्ड वाक्य एवं वाक्यार्थ को स्वीकार करते हुए वक्ता एवं श्रोता दोनों की दृष्टि से जब तक इनका विवेचन नहीं होता, तब तक वाक्यार्थ सम्बन्धी समस्याएँ यथावस्थ रहेंगी।
भर्तृहरि-सम्मत-वाक्यार्थ
पूर्वतन अध्याय में अखण्डवाक्य-पक्ष के तीन मत दर्शाये गये हैं –
1. संघातवर्तिनी जाति, 2. एक अवयवरहित शब्द तथा 3. बुद्ध्यनुसंहार। इन तीनों मतों में प्रतिभा ही वाक्यार्थ है। भर्तृहरि के अनुसार वाक्यार्थ का ज्ञान कराने की शक्ति केवल एकात्मक-स्फोट रूप वाक्य में है, अन्य में नहीं – ‘‘वाक्यरूपस्य वाक्यार्थे वृत्तिरन्यानपेक्षया।’’ अर्थात्, वाक्यार्थ-बोध में वाक्य को अपने अतिरिक्त किसी अन्य निमित्त की आवश्यकता नहीं होती। वह वर्ण, पद, पदार्थ, पदार्थ-संसर्ग अथवा संसर्ग-मर्यादा किसी की भी अपेक्षा नहीं करता। सभी सम्प्रदायों में समान रूप से सम्मत शाब्दबोध के जो आकांक्षादि सहकारी कारण हैं, भर्तृहरि उनकी चर्चा भी नहीं करते क्योंकि उनके अनुसार श्रोता को शाब्दबोध वाक्य से होता है, पदों से नहीं – जिनके लिए इन कारणों की आवश्यकता पड़े। वैयाकरण वाक्य को स्फोटात्मक, वाक्यार्थ को प्रतिभात्मक तथा इन दोनों के सम्बन्ध को अध्यासरूप मानते हैं। प्रतिभा पदार्थ से नितान्त भिन्न है क्योंकि वाक्यगत पदों को पृथक् पृथक् ग्रहण करने पर प्रतिभा का स्वरूप वही नहीं रह जाता–
‘‘विच्छेदग्रहणेऽर्थानां प्रतिभान्यैव जायते। वाक्यार्थ इति तामाहुः पदार्थैरुपपादिताम्।।’’
वाक्यार्थ की प्रतीति सम्पूर्ण एवं अखण्ड विचार के रूप में एकरस होकर होती है। अतः यहाँ अभिहितान्वय या अन्विताभिधानवादों की चर्चा का कोई अवकाश नहीं है। प्रतिभा की व्याख्या मन या बुद्धि के रूप में भी की गई है। चूँकि वाक्यार्थ ज्ञान बुद्धि के आकार से आकारित होता है, अतः औपचारिक रूप से वाक्यार्थ को भी प्रतिभा कह देते हैं। भर्तृहरि के अनुसार हमें प्रतिभा एक चमक के रूप में उद्भासित होती है। यही कारण है कि इसका ‘इदमित्थम्’ सविकल्पक वर्णन करना दुःशक है। यहाँ तक कि वक्ता या श्रोता अनुभव करते हुए भी इसका वर्णन नहीं कर सकते। फिर भी प्रतिभा को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि वह अन्तःकरण के द्वारा प्रत्यक्षतः अनुभव में आती है-
‘‘इदं तदिति सान्येषामनाख्येया कथंचन। प्रत्यात्मवृत्ति सिद्धा सा कर्त्रापि न निरूप्यते।।’’
प्रतिभा के कारण ही वाक्यगत पदों के अर्थों का सम्मिश्रण होकर एकात्मक प्रतीति होती है। मानो प्रतिभा सभी पदार्थों का विषय बनकर उन्हें अपना एकात्मक स्वरूप दे देती है। भर्तृहरि ने प्रतिभा को केवल शाब्दजगत् तक ही सीमित नहीं रखा है। इसका क्षेत्र मनुष्यों के वाग्व्यवहार के अतिरिक्त समस्त प्राणियों के सभी व्यापारों के मूलकारण तक व्याप्त है। इतने व्यापकतत्त्व की अवहेलना या अपलाप आत्मप्रवंचना ही होगी। प्रतिभा अन्तःकरण की प्रवृत्तिरूप होने के कारण परम-प्रमाण है। सभी सांसारिक व्यवहारों के मूल में प्रतिभा अवश्य रहती है – ‘इतिकर्तव्यतायां तां न कश्चिदतिवर्तते।’
प्रतिभा कभी शब्द से तो कभी व्यवहार से उत्पन्न होती है। कभी-कभी इसके प्रकट होने का कारण नहीं बताया जा सकता। इस परिस्थिति में विद्वान् इसे दूसरे जन्म के संस्कार का प्राकट्य मानते हैं। आचार्य के अनुसार जिस प्रकार कुछ विशेष द्रव्यों के परिपाक के समय उनमें नशे की शक्ति स्वतः – बिना किसी प्रयत्न विशेष के उत्पन्न हो जाती है, प्राणियों में प्रतिभा का आधान भी वैसे ही स्वाभाविक होता है। मनुष्य की प्रतिभा को जगाने के लिए कुछ प्रयत्न भी करने पड़ते हैं परन्तु पशुओं में व्यक्त प्रतिभा बिना किसी प्रयत्न के ही उद्भूत हो जाती है। इस प्रसंग में भर्तृहरि ने प्रतिभा के छः प्रकार बताए हैं , जिनका स्पष्टीकरण निम्नवत् है –
स्वाभाविकी प्रतिभा स्वभावसिद्ध होती है, जैसे वानर का शाखाओं पर कूदना आदि। स्वभावसिद्ध प्रतिभा संस्कार रूप में अनादि-अभ्यास के कारण अस्तित्व में रहती है। अनुकूल समय मिलते ही यह जग जाती है। इसका कारण पैतृक प्रवृत्ति या चिर अभ्यास भी हो सकता है। चरणनिमित्ता प्रतिभा तप इत्यादि से प्राप्त अलौकिक प्रतिभा है। यह प्राचीन ऋषियों में सरलता से दिखाई पड़ती है। अभ्यासनिमित्ता प्रतिभा चिरकालीन अभ्यास द्वारा मनुष्यों में आ जाती है। जैसे जौहरी अथवा संगीतज्ञ अपने विषयों को सूक्ष्मता एवं आसानी से जान लेते हैं। भर्तृहरि ने अन्यत्र भी ‘अभ्यासात् प्रतिभाहेतुः सर्वः शब्दः..’ कहा है। योगनिमित्ता प्रतिभा योगियों की अलौकिक क्रिया में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। अदृष्टनिमित्ता प्रतिभा उन राक्षसादियों में प्राप्त होती है जो परकाया-प्रवेशादि कार्यों में समर्थ होते हैं। विशिष्टोपहिता अर्थात् किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा किसी अपेक्षाकृत सामान्य-व्यक्ति में पहुँचाई गई प्रतिभा जैसे वेदव्यास द्वारा संजय को दी गई दिव्यदृष्टि।
भर्तृहरि ने कहा है कि शाब्द जगत् की दृष्टि में प्रतिभा वाक्यों से प्रतिपाद्य होते हुए भी सभी वाक्यों की आधार है। वह व्याकरणिक प्रक्रियाओं से परे वस्तु है। व्याकरण सम्मत क्रम आदि शक्तियों के नष्ट हो जाने पर भी शब्द-बीज प्रतिभा में सन्निविष्ट रहते हैं। अनुकूलता पाने पर वही प्रतिभा वर्ण, पद, वाक्य के रूप में पुनः विस्तृत होती हुई आभासित होती है। भर्तृहरि ने अन्यत्रभी प्रतिभा को अनादि तथा अपौरुषेय सिद्ध किया है।
भर्तृहरि के प्रतिभा-सिद्धान्त की विशिष्टता यह है कि इसमें वाक्यार्थ के ज्ञान की प्रक्रिया को उसी प्रक्रिया से जोड़ा गया है जिससे कि सभी प्रकार के ज्ञान सम्बद्ध हैं। वाक्यार्थ-बोध का स्वरूप एवं प्रक्रिया ज्ञान-सामान्य की प्रक्रिया से भिन्न नहीं है। शाब्द-ज्ञान भी चूँकि एक विशिष्ट प्रकार का ज्ञान ही है अतः उसका स्वरूप या उसकी प्रक्रिया ज्ञान सामान्य से कदापि भिन्न नहीं मानी जा सकती। दो ज्ञानों के लिए भिन्न-भिन्न मापदण्ड बिल्कुल तर्कसंगत नहीं हैं। अतः जिस प्रतिभा से अन्य सभी ज्ञान प्राप्त होते हैं वाक्यार्थ ज्ञान भी उसी से होता है। आचार्य के द्वारा प्रतिभा का प्रतिपादन एक प्रकार से ज्ञान-प्रक्रिया के क्षेत्र में अद्वैत का प्रतिपादन है। प्रतिभा न केवल वाक्यार्थ ज्ञान का कारण है बल्कि प्राणिमात्र के सभी प्रकार के ज्ञानों का कारण एवं स्वरूप है।
भर्तृहरि के इस स्वोपज्ञ सिद्धान्त ने परवर्ती चिन्तकों पर गम्भीर प्रभाव डाला है। दिङ्नाग ने इसी से अनुप्राणित होकर अपने वाक्यार्थ-सिद्धान्त को प्रतिभात्मक माना। भोज ने भर्तृहरि से प्रेरित होकर प्रतिभा के और अधिक विभाजन किये। कुमारिल एवं जयन्त भट्ट ने प्रतिभा के महत्त्व को अंशतः स्वीकार करते हुए भी उसका खण्डन किया।
इस प्रकार सर्वजनमनःसंवेद्य, अखण्ड, निरवयव एवं अनिरूप्य प्रतिभा वैयाकरणों को वाक्यार्थ के रूप में सम्मत है।
(भारतीय तथा पाश्चात्त्य वाक्यार्थ सिद्धान्त – डा बलराम शुक्ल, प्रतिभा प्रकाशन से साभार )
बडा ही सारगर्भित है गागर में सागर की भांति
इतने बडे विषय को सटीक वाक्यों में प्रस्तुत करने के कारण समझने में सुगम रहा