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Archive for the ‘प्रकृतिप्रेम’ Category

खंधग्गिणा वणेसुं तणेहि गामम्मि रक्खिओ पहिओ |

णअरवसिओ णडिज्जइ साणुसएण व्व सीएण ||गाहासत्तसई १.७७||

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(सर्दियों में गाँव से शहर को चला है प्रवासी!)

जंगलों में तो लकड़ी के बोटों की आग से

गाँव में तिनकों और भूसों की आग से उसने अपने को बचा लिया।

लेकिन शहर में ठंड ने उसे दबोच लिया। जैसे अब तक किसी तरह बच जा रहे अपने शिकार से उसे ईर्ष्या हो रही थी।

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रानात मुक्काम होता तेव्हा ओंडक्यांच्या धगीने व खेड्यांत आला तेव्हा गवताच्या शकोटीने पथिकाने थंडीपासून स्वतःचे रक्षण केले. परंतु जसा तो या नगरात आला तसा आतापर्यंत आपल्या तडाख्यातून सुटलेल्या शिकारी प्रमाणे इरेला पेटून रागावलेल्या थंडीने त्याला त्रस्त केले. (जोगळेकरानुसारी मराठी भाषान्तर) Sandeep Joshi

बाहर की फ़ोटो हो सकती है

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दो-दो वसन्त

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भौमैर्वर्णान्वितैः पुष्पैर्दिव्यैः शुभ्रहिमात्मकैः।

पर्ववान् पर्वतो वर्षे द्विर्वसन्तं समश्नुते।।

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उत्सवों से भरे ये पहाड़

वर्ष में दो बार वसन्त का उपभोग करते हैं!

एक बार धरती से उपजने वाले

रंग बिरंगे फूलों से!

और, दूसरी बार आकाश से झरने वाले

सफ़ेद रंग के बर्फ़ के फूलों से!!

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(निरुक्तकार यास्क के अनुसार पर्वत को पर्वत इसलिए कहते हैं क्योंकि उनमें पर्व अर्थात् शृंखलाएँ होती हैं। उनमें पर्व अर्थात् उत्सव होते हैं इसलिए भी उन्हें पर्वत कह सकते हैं!!)

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