Feeds:
पोस्ट
टिप्पणियाँ

Archive for the ‘विशेष लेख’ Category

*जाड्य शब्द के दो अर्थ हैं– जाड़ा और अज्ञान। निश्चलता ठंड और अज्ञान दोनों का लक्षण है। शीत शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ भी सिकुड़ना ही है।

**शास्त्रों में सभी इन्द्रियों को संयत रखने की बात कही गयी है। एक इन्द्रिय का भी अनियन्त्रित रह जाना मशक़ में रह गये एक छिद्र जैसा है, जिससे समस्त विवेक देर सबेर क्षीण हो ही जायेगा। (दे॰ मनुस्मृति २.९९)

इसे ध्यान में रखकर निम्नांकित पद्य पढ़ें –

——————————–

अयतैकेन्द्रियजीवाद्

इवानपिहितैकरन्ध्रनीशारात्।

निभृतं प्रविश्य जाड्यं

व्यथयत्यात्मानमिव तनुं शीते॥

——————————–

= शीत ऋतु (की रातों) में अगर रजाई का केवल एक कोना भी खुला रह गया तो मानो वह उस जीव (सूक्ष्म शरीर) की तरह हो गया जिसकी केवल एक इन्द्रिय अनियन्त्रित हो।

उस छेद से जाड़ा (जाड्य) चुपके से घुस कर सारे शरीर को वैसे ही कष्ट देने लगता है जैसे जीव के उसी असंयत एक इन्द्रिय के रास्ते अज्ञान (जाड्य) आत्मा पर पूरी तरह से छाकर उसे विमूढ कर देता है।

बच्चा की फ़ोटो हो सकती है

Read Full Post »

प्राकृत के आगमेतर ललित काव्यों में ‘सेतुबन्ध’ काव्य का स्थान सबसे ऊपर है। इस काव्य में १५ आश्वासक तथा १,२९१ पद्य हैं। पद्यों में अधिकतर स्कन्धक छन्द का प्रयोग है जो गाहा (आर्या) का एक भेद है। आर॰ सी॰ मजूमदार तथा ए॰एस॰ अल्तेकर का मानना है कि इस काव्य की रचना जिन प्रवरसेन ने की थी वे वाकाटक वंश के राजा प्रवरसेन द्वितीय (४१०–४४० ई॰) थे। फिर भी यह प्रसिद्धि व्यापक है कि इस काव्य की रचना कालिदास ने की थी। जो लोग कालिदास को चौथी शताब्दी का मानते हैं उनके अनुसार प्रवरसेन ने इस काव्य की रचना करके कालिदास से इसकी परिशुद्धि करायी होगी। यद्यपि काव्य को पढ़ने से स्पष्टतः यह रचना कालिदास की नहीं लगती है लेकिन इस व्यापक प्रसिद्धि से कम से कम उन आधुनिक लोगों के मत की निःसारता तो प्रकट हो ही जाती है जो प्राकृत तथा संस्कृत को भिन्न सांस्कृतिक इकाइयाँ मानते हैं, अथवा यह मानते हैं कि संस्कृत का तथाकथित भद्रलोक प्राकृत को निकृष्ट समझता था।

इस काव्य की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। दण्डी ने काव्यादर्श (१.३४) में महाराष्ट्री प्राकृत की प्रशंसा करते हुए उसे इसलिए उत्कृष्ट बताया है क्योंकि उसमें ‘सेतुबन्ध’ जैसा अद्भुत काव्य है। सेतुबन्ध का वास्तविक नाम ‘सेतुबन्ध’ नहीं बल्कि ‘रावणवध’ अथवा ‘दशमुखवध’ है, जैसा कि स्वयं इस काव्य के पुष्पिकात्मक पद्य (१५.९४) से पता चलता है। वस्तुतः, इस पूरे काव्य में वानरों द्वारा समुद्र पर पुल बाँधने का वर्णन इतना भव्य और उत्कट है कि इस समस्त कृति का नाम ‘सेतुबन्ध’ हो गया है। इस नाम की प्रसिद्धि बहुत पहले हो चुकी होगी क्योंकि दण्डी तथा बाण दोनों इस ग्रन्थ को इसी नाम से स्मरण करते हैं। ‘हर्षचरित’ में आरम्भिक १४वें पद्य में बाणभट्ट प्रेक्षित करते हैं कि प्रवरसेन की कीर्ति किस प्रकार समुद्र पार विदेशों तक फैल चुकी थी। कम्बोडिया का प्रवरसेन नाम का एक दूसरा भारतवंशी राजा सेतुबन्धकार से प्रतिस्पर्धा करता हुआ अपने शिलालेख में गर्वोक्तियाँ करता है।

सेतुबन्ध काव्य भारतीय वाङ्मय में बहुत ही प्रसिद्ध रहा है। इसे समझने समझाने की परम्परा किसी शास्त्र की तरह ही विकसित हुई है। इसका पता चलता है सम्राट् अकबर के दरबार में उसके विशेष कृपापात्र रहे राजा रामदास द्वारा लिखी ‘सेतुप्रदीप’ नाम एक टीका से। इसके प्रारम्भ तथा अन्त में अकबर की भूरि भूरि प्रशंसा है। रामदास कहते हैं कि “अकबर अखण्ड पृथ्वी पर शासन करते हुए, गायों को हत्या से बचाते हैं, तीर्थ तथा व्यापार से करों को हटाते हैं, पुराणों को सुनते हैं, सूर्य के नाम का जप करते है, योगसाधना करते हैं और गंगा के अतिरिक्त और किसी जल को नहीं पीते”। (सेतुप्रदीप उपोद्घात पद्य ३)

इस टीका की रचना का समय १५९५-९६ है। वे बार बार अन्यान्य टीकाकारों के सम्प्रदाय-रूढ अर्थों को उद्धृत करते हैं। उनकी टीका समृद्ध और सुन्दर है। रिचर्ड पिशल (प्राकृत भाषाओं का इतिहास, पृ॰ २३) का उनके बारे में यह कहना कि “उन्हें मूल का अर्थ पता नहीं था” उनके प्रति अन्याय है। एक टीका ‘सेतुतत्त्वचन्द्रिका’ इससे भी पहले की है जिसके लेखक के नाम का पता नहीं चल पाया है। इसमें भी कुलनाथ आदि अनेक पूर्ववर्ती टीकाकारों के बार बार उद्धरण आते हैं।

प्रवसरसेन भारतीय साहित्य के उत्कृष्टतम कवियों में से एक हैं। वस्तुतः वे अद्भुत, रौद्र, वीर, भयानक जैसे विकट रसों के सफल प्रयोक्ता हैं। उनकी कविता में इस प्रकार के वर्णन अधिक उभर कर आये भी हैं। प्रेम, विरह, करुणा आदि के प्रसंगों में वे बहुत कुछ नहीं कर पाते। ‘राम के कटे कृत्रिम सिर को देखकर सीता का विलाप’, ‘लक्ष्मण के लिए रामचन्द्र का विलाप’ आदि ऐसे प्रसंगों को देखने से यह बात पुष्ट हो जाती है। लेकिन जब वे राम के क्रोध, समुद्र के उच्छलन, सेतु के बाँधने अथवा विविध युद्धों का वर्णन करते हैं तो उन्हें अपार सफलता मिलती है। इतनी कि जैसे सारा दृश्य ही आँखों के सामने रील की भाँति चलने लगता है। अपनी इस क्षमता को जानते हुए ही उन्होंने रामायण के लंकाकाण्ड से यह विशेष विकट कथावस्तु चुनी है। उत्तम कोटि का कवि वह होता है जो अपने सामर्थ्य को जानता है और लेखनी को अपने क्षेत्र में ही व्यापृत करता है। “कविता में कोई भी वस्तु आ सकती है”, यह समझ कर वह किसी भी वस्तु पर कुछ भी लिखने नहीं लग जाता।

सेतुबन्ध को पूरा पढ़ने की लालसा वर्षों से थी जो आज जाकर पूरी हुई। हृदय कई सप्ताह से सेतुबन्ध के प्रति आश्चर्य और प्रवरसेन के प्रति प्रशंसा से भरा हुआ है। इसी भावना में कविता की प्रशंसा में २ स्कन्धक (खंधआ) लिखे गये, जो आगे दिये जा रहे हैं। स्कन्धक वही छन्द है जिसका प्रयोग सेतुबन्ध में हुआ है। यह आर्या में २ और मात्राएँ मिला देने से बन जाती है (प्राकृतपैङ्गलम् १.७३)।

पुव्वं बन्धइ सेउं पच्छा णिहणेइ दहमुहं दासरही।

दॊण्णि वि समं कुणंतो सलहिज्जउ सो कहं उण पवरसेणो?॥

(पूर्वं बध्नाति सेतुं पश्चात् निहन्ति दशमुखं दाशरथिः।

द्वयमपि समं कुर्वन् श्लाघ्यतां सः कथं पुनः प्रवरसेनः? )

= रामचन्द्र भी पहले समुद्र पर पुल बनाते हैं और बाद में ही रावण को मार पाते हैं, परन्तु प्रवरसेन ‘सेतुबन्ध’ तथा ‘रावणवध’ दोनों एक साथ कर पाते हैं। ऐसे प्रवरसेन की प्रशंसा करने का सामर्थ्य किसमें है?

[वस्तुतः, जैसा कि ऊपर बताया गया ‘सेतुबन्ध’ तथा ‘रावणवध’ एक ही कृति के दो नाम हैं। इसलिए प्रवरसेन दोनों युगपत् कर पाते हैं। ऐसा रामचन्द्र नहीं कर पाते।]

सेउकरणस्स दहमुहवहस्स णिअखन्धएहिँ भारो गरुओ।

को आससिओ सक्कइ संवहिउं? राहवो कइपवरसेणो॥

(सेतुकरणस्य दशमुखवधस्य निजस्कन्धकैः भारो गुरुकः।

कः आश्वस्तः [आश्वासितः] शक्नोति संवोढुम्? राघवः कपिप्रवरसेनः[कविप्रवरसेनः])

[ आन्तं पठितवद्भ्यो नववर्षस्य शुभाशयाः😊😊 ]

फ़ोटो का कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है.

Read Full Post »

फ़ारसी में एक धातु है बालीदन (بالیدن) जिसके दो अर्थ हैं १. शरीर के अवयवों का बढ़ना, बालिग़ होना, तथा २. नाज़ करना, अहंकार करना, गर्व करना। इसी तरह पेचीदन या पीचीदन (پیچیدن) धातु के भी दो अर्थ हैं– १. मुड़ना, पेंच या बल खाना, तथा २. व्याकुल होना, पछताना, परेशान होना। इन दोनों धातुओं के दोनों अर्थों का श्लिष्ट प्रयोग करके कवि बेदिल ‘देहलवी’ (1642-1720) अद्भुत कविता गढ़ी है।

‘बेदिल’ फ़ारसी कविता की भारतीय शैली के सबसे उत्कृष्ट कवि हैं। फ़ारसी के शब्दों के अर्थगौरव को जिस प्रकार उन्होंने समझा और उसका कविता में अनुप्रयोग किया है उतनी मात्रा में सारे फ़ारसी जगत् में कोई भी दूसरा कवि नहीं कर सका है। सुनते हैं कि वे संस्कृत कविता की परम्परा तथा अद्वैत वेदान्त से गहराई से वाक़िफ़ थे। यह बात सही भी है, अन्यथा श्लेषानुप्राणित उपमा का इतना हृदयावर्जक प्रयोग संस्कृत-प्राकृत और उसकी परम्परा के अतिरिक्त अन्य और कहाँ मिल पाता है। उनका शेर इस तरह है–

“ग़ुरूरे इज्ज़े दुनिया हुक्मे शाख़े आहुआन् दारद

तू हम चन्दान् कि बर ख़ुद बीश बाली, बीश्तर पीची”

[غرور عجز دنیا حکمِ شاخ آهوان دارد

تو هم چندان که بر خود بیش بالی، بیشتر پیچی]

= कुण्ठित करने वाला दुनियावी अहंकार हिरनों के सींग की तरह है।

तुम भी अपने पर जितना ही अधिकाधिक गर्व करोगे उतना ही अपने अन्दर व्याकुल होओगे। जैसे कि हिरन की सींग जितनी ही बढ़ती है उतना ही अपने ही अन्दर गोल गोल घूमती रहती है।

———

शेर में बात हिरन की है लेकिन चित्र बकरी की एक प्रजाति मारख़ोर (مارخور) का है। मारख़ोर को पाकिस्तान में राष्ट्रीय पशु का दर्जा प्राप्त है।

पशु और बाहर की फ़ोटो हो सकती है

Read Full Post »

दो-दो वसन्त

—————-

भौमैर्वर्णान्वितैः पुष्पैर्दिव्यैः शुभ्रहिमात्मकैः।

पर्ववान् पर्वतो वर्षे द्विर्वसन्तं समश्नुते।।

——————

उत्सवों से भरे ये पहाड़

वर्ष में दो बार वसन्त का उपभोग करते हैं!

एक बार धरती से उपजने वाले

रंग बिरंगे फूलों से!

और, दूसरी बार आकाश से झरने वाले

सफ़ेद रंग के बर्फ़ के फूलों से!!

———————–

(निरुक्तकार यास्क के अनुसार पर्वत को पर्वत इसलिए कहते हैं क्योंकि उनमें पर्व अर्थात् शृंखलाएँ होती हैं। उनमें पर्व अर्थात् उत्सव होते हैं इसलिए भी उन्हें पर्वत कह सकते हैं!!)

Read Full Post »

जयइ सरस्सइ बुहजणवंदिअअरसेट्ठपाअकंदोट्ठा।

पाइअमिव महुरमुही सक्कयमिव रूढमाहप्पा।।

[विद्वान् जिनके श्रेष्ठ चरण कमलों की वन्दना करते हैं

ऐसी सरस्वती देवी की सर्वोत्कृष्ट हैं

वे प्राकृत की भाँति मधुर मुख मण्डल वाली हैं

और, संस्कृत की तरह महामहिमशालिनी]

—————————–

भाषा जिसका दूसरा नाम है वह ‘सरस्वती’ अनादि काल से भारत में ‘प्राकृत’ तथा ‘संस्कृत’ दो रूपों में प्रयुक्त होती रही है (कुमारसम्भव ७.९०)। दोनों में हमेशा से पोष्य पोषक भाव रहा है। जैसे एक शरीर के पूर्वार्ध और पश्चार्ध के मध्य होता है। इसी नाते भारतवर्ष भाषाओं की दृष्टि से इतना समृद्ध हो सका है। संस्कृत तथा प्राकृत केवल दो भाषाओं के नाम नहीं हैं बल्कि ये दो भाषिक प्रवृत्तियाँ हैं जो भारत में हमेशा से वर्तमान रही हैं।

पिछली शताब्दियों में दुर्घटित उपनिवेशवाद और फिर भूमण्डलीकरण के कारण आयी एकभाषावाद अथवा विश्वभाषावाद जैसी अपसंस्कृतियों के कारण इस प्रवृत्ति में दुःखद ह्रास अवश्य हुआ है।

भारत में अनेक भाषाओं के व्यवहार के अलावा हमेशा से स्थिर तथा गतिशील दो प्रकार की भाषिक प्रवृत्तियों का चलन रहा है। संस्कृत तथा प्राकृत उपर्युक्त दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों को दर्शाने वाली प्रमुख प्रतिनिधि भाषाएँ सिद्ध होती हैं। स्थिर भाषाओं में भी आन्तरिक गतिशीलता रही है और गतिशील भाषाएँ भी स्थिरता की ओर उन्मुख रही हैं। इसी प्रवृत्ति के अनुकूल प्राकृत, अपभ्रंश इत्यादि भाषाएँ भी बाद में व्याकरण आदि से सुसंस्कृत होकर स्थिर भाषा की कोटि में परिगणित होने लगीं। वस्तुतः संस्कृत तथा प्राकृत भारत में हमेशा से रही दो प्रकार की भाषिक प्रवृत्तियों का भी नाम है। दो प्रकार की भाषा प्रवृत्तियों का निरन्तर प्रचलन विविध संस्कृति वाले भारत देश में संप्रेषण को बनाये रखने, उसे एक सांस्कृतिक सूत्र में बाँधने तथा इसकी अर्वाचीन पीढ़ी को अतीत की ज्ञान सम्पदा के साथ जोड़े रखने के लिए आवश्यक था।

अनेक अर्वाचीन अध्येता वर्गसंघर्ष के अपने कल्पित मॉडल को प्राचीन भारतीय भाषाओं पर भी चिपका कर उन्हें परस्पर वैमनस्यपूर्ण सम्बन्ध में स्थित बताते रहे हैं। भारत की लम्बी, अविच्छिन्न और समृद्ध भाषिक तथा साहित्यिक परम्परा को देखें तो उनका भ्रान्तिपूर्ण मत स्वतः खण्डित हो जाता है।

भाषिक और साहित्यिक ही क्यों? धर्म और दर्शन की दृष्टि से भी लोक भाषाओं को किसी भी तरह से कमतर नहीं माना गया है। इसके लिए प्रचुर प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं–।

प्रपञ्चसारतन्त्र तन्त्र का एक प्रमुख ग्रन्थ है जिसके रचनाकार शंकराचार्य माने जाते हैं। इसके आठवें पटल के ४३ वें श्लोक में संस्कृत तथा प्राकृत दोनों को सरस्वती की शक्तियों के रूप में माना गया है तथा उन दोनों के पूजा का विधान किया है–

पूजायां पार्श्वयुगे ससंस्कृता प्राकृता च वाग्देव्याः।

केवलवाङ्मयरूपे सम्पूज्याऽङ्गैश्च शक्तिभिस्तदनु॥

प्रपञ्चसारतन्त्र की आचार्य पद्मपाद के द्वारा की गयी टीका है प्रपञ्चसारविवरण। किसी अज्ञात विद्वान् ने प्रयोगक्रमदीपिका नाम से इसका व्याख्यान उन्होंने इस प्रकार किया है (पृ॰५६२)–

संस्कृता प्राकृता शक्ती भवतः। तदुक्तम्–

दक्षिणे संस्कृता पूज्या योगमुद्राकरद्वया।

सन्ततं निःसरच्छब्दवदनान्या च वामतः॥

अर्थात्, संस्कृत और प्राकृत ये दो सरस्वती की शक्तियाँ हैं, सरस्वतीपूजन के समय दाहिनी ओर संस्कृत को प्रतिष्ठित करना चाहिए और बाँई ओर प्राकृत को ।

[भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में समर्पित शोध कर्म का एक अंश]

–––––––––––––––––––––––––––

छाया- जयति सरस्वती बुधजनवन्दिततरश्रेष्ठपादपङ्कजा।

प्राकृतमिव मधुरमुखी संस्कृतमिव रूढमाहात्म्या।।

फूल की फ़ोटो हो सकती है

Read Full Post »