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Posts Tagged ‘विविध भारतीय भाषाएँ’

संस्कृत वाङ्मय : विस्तार एवं सातत्य

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जयइ सरस्सइ बुहजणवंदिअअरसेट्ठपाअकंदोट्ठा।

पाइअमिव महुरमुही सक्कयमिव रूढमाहप्पा।।

[विद्वान् जिनके श्रेष्ठ चरण कमलों की वन्दना करते हैं

ऐसी सरस्वती देवी की सर्वोत्कृष्ट हैं

वे प्राकृत की भाँति मधुर मुख मण्डल वाली हैं

और, संस्कृत की तरह महामहिमशालिनी]

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भाषा जिसका दूसरा नाम है वह ‘सरस्वती’ अनादि काल से भारत में ‘प्राकृत’ तथा ‘संस्कृत’ दो रूपों में प्रयुक्त होती रही है (कुमारसम्भव ७.९०)। दोनों में हमेशा से पोष्य पोषक भाव रहा है। जैसे एक शरीर के पूर्वार्ध और पश्चार्ध के मध्य होता है। इसी नाते भारतवर्ष भाषाओं की दृष्टि से इतना समृद्ध हो सका है। संस्कृत तथा प्राकृत केवल दो भाषाओं के नाम नहीं हैं बल्कि ये दो भाषिक प्रवृत्तियाँ हैं जो भारत में हमेशा से वर्तमान रही हैं।

पिछली शताब्दियों में दुर्घटित उपनिवेशवाद और फिर भूमण्डलीकरण के कारण आयी एकभाषावाद अथवा विश्वभाषावाद जैसी अपसंस्कृतियों के कारण इस प्रवृत्ति में दुःखद ह्रास अवश्य हुआ है।

भारत में अनेक भाषाओं के व्यवहार के अलावा हमेशा से स्थिर तथा गतिशील दो प्रकार की भाषिक प्रवृत्तियों का चलन रहा है। संस्कृत तथा प्राकृत उपर्युक्त दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों को दर्शाने वाली प्रमुख प्रतिनिधि भाषाएँ सिद्ध होती हैं। स्थिर भाषाओं में भी आन्तरिक गतिशीलता रही है और गतिशील भाषाएँ भी स्थिरता की ओर उन्मुख रही हैं। इसी प्रवृत्ति के अनुकूल प्राकृत, अपभ्रंश इत्यादि भाषाएँ भी बाद में व्याकरण आदि से सुसंस्कृत होकर स्थिर भाषा की कोटि में परिगणित होने लगीं। वस्तुतः संस्कृत तथा प्राकृत भारत में हमेशा से रही दो प्रकार की भाषिक प्रवृत्तियों का भी नाम है। दो प्रकार की भाषा प्रवृत्तियों का निरन्तर प्रचलन विविध संस्कृति वाले भारत देश में संप्रेषण को बनाये रखने, उसे एक सांस्कृतिक सूत्र में बाँधने तथा इसकी अर्वाचीन पीढ़ी को अतीत की ज्ञान सम्पदा के साथ जोड़े रखने के लिए आवश्यक था।

अनेक अर्वाचीन अध्येता वर्गसंघर्ष के अपने कल्पित मॉडल को प्राचीन भारतीय भाषाओं पर भी चिपका कर उन्हें परस्पर वैमनस्यपूर्ण सम्बन्ध में स्थित बताते रहे हैं। भारत की लम्बी, अविच्छिन्न और समृद्ध भाषिक तथा साहित्यिक परम्परा को देखें तो उनका भ्रान्तिपूर्ण मत स्वतः खण्डित हो जाता है।

भाषिक और साहित्यिक ही क्यों? धर्म और दर्शन की दृष्टि से भी लोक भाषाओं को किसी भी तरह से कमतर नहीं माना गया है। इसके लिए प्रचुर प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं–।

प्रपञ्चसारतन्त्र तन्त्र का एक प्रमुख ग्रन्थ है जिसके रचनाकार शंकराचार्य माने जाते हैं। इसके आठवें पटल के ४३ वें श्लोक में संस्कृत तथा प्राकृत दोनों को सरस्वती की शक्तियों के रूप में माना गया है तथा उन दोनों के पूजा का विधान किया है–

पूजायां पार्श्वयुगे ससंस्कृता प्राकृता च वाग्देव्याः।

केवलवाङ्मयरूपे सम्पूज्याऽङ्गैश्च शक्तिभिस्तदनु॥

प्रपञ्चसारतन्त्र की आचार्य पद्मपाद के द्वारा की गयी टीका है प्रपञ्चसारविवरण। किसी अज्ञात विद्वान् ने प्रयोगक्रमदीपिका नाम से इसका व्याख्यान उन्होंने इस प्रकार किया है (पृ॰५६२)–

संस्कृता प्राकृता शक्ती भवतः। तदुक्तम्–

दक्षिणे संस्कृता पूज्या योगमुद्राकरद्वया।

सन्ततं निःसरच्छब्दवदनान्या च वामतः॥

अर्थात्, संस्कृत और प्राकृत ये दो सरस्वती की शक्तियाँ हैं, सरस्वतीपूजन के समय दाहिनी ओर संस्कृत को प्रतिष्ठित करना चाहिए और बाँई ओर प्राकृत को ।

[भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में समर्पित शोध कर्म का एक अंश]

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छाया- जयति सरस्वती बुधजनवन्दिततरश्रेष्ठपादपङ्कजा।

प्राकृतमिव मधुरमुखी संस्कृतमिव रूढमाहात्म्या।।

फूल की फ़ोटो हो सकती है

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परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ!

(भगवद्गीता ३.११)

देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु ॥
– ऋग्. ८.१००.११॥

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भारत की सनातन भाषिक-चर्या तथा प्राकृत

https://www.youtube.com/watch?v=4vhKKRVq9U0

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Prof. George Cardona विश्व में पाणिनीय तन्त्र के प्रमुखतम विद्वानों में से एक हैं। व्याकरण सम्बन्धी आधुनिक विमर्शों में उन्होंने पारम्परिक भारतीय सिद्धान्तों को वरीयता दी है। उनके सम्मान में दो खण्डों में प्रकाशित अभिनन्दन ग्रन्थ “शब्दानुगमः” में मेरे एक शोधलेख- “व्यञ्जनायाः सर्ववाक्यसाधारणत्वम्” (Vol. I, 583-600. [ed.] Peter M. Scharf. USA : The Sanskrit Library. ISBN 978-1-943135-01-1) को भी सम्मिलित किया गया है।

इस शोधलेख में एक महत्त्वाकाङ्क्षी अभिमत सामने रखा गया है। वह यह कि व्यञ्जना भी अभिधा की भाँति सभी वाक्यों में आवश्यक रूप से प्रवृत्त होती है। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वाक्य के एक या अनेक व्यङ्ग्यार्थ होते ही हैं। व्यञ्जना की प्रवृत्ति के लिए वाक्य का काव्यात्मक होना अनिवार्य नहीं है। इस अभिमत की यथाशास्त्र विवेचना करके इसमें सम्भावित विरोधों को उठाकर उसका परिहार करने का यत्न भी किया गया है।

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इस संस्कृतमय लेख का सारांश निम्नवत् है–

व्यञ्जनाया अभिधालक्षणाभ्यां पृथक्शक्तित्वसाधने आलङ्कारिकैः महान् श्रमः कृतः। स च इदं प्रतिपादनाय अभूद् यद् ध्वनिरूपः प्रतीयमानः यः काव्यार्थः स अभिधया, लक्षणया वा शक्त्या नितराम् अगम्यः एवास्ति। व्यञ्जनाविचारस्य अलंकारशास्त्रमात्रविषयत्वात्, एतत्सर्वं प्रतिपादयद्भिः आलंकारिकैः प्रायः काव्यात्मकवाक्यानि उदाहरणत्वेन प्रस्तुतानि, न तु सामान्यानि दैनन्दिनसम्भाषणवाक्यानि। अत्र एष प्रश्नः समुदेति- अपि व्यञ्जनाशक्तिः कवितागतानि एव वाक्यानि विषयीकरोति, न सामान्यानि भाषिकवाक्यान्यपीति- अस्यां जिज्ञासायां सत्यां, काव्येतराणां सामान्यानां वाक्यानां प्रयोगविषये व्यञ्जनाशक्त्याः का भूमिका, इत्यस्मिन् विषये सम्यग् विमर्शः अपेक्ष्यते। एतदेव मनसिकृत्य प्रकृतेऽस्मिन् शोधपत्रे मानवीयसम्भाषणान्तर्गतं प्रयुक्तेषु विविधवाक्येषु व्यञ्जनायाः प्रयोज्यता सुतरां विश्लेषिता। अत्र चर्चायां काचित् त्रिस्तरीया वाक्यार्थावबोधपद्धतिः प्रस्ताविता, यत्र शक्तित्रितयं व्याप्रियते। अत्र च पद्धत्यां प्रथमा (अभिधा), तृतीया (व्यञ्जना) च शक्ती सर्वेषां वाक्यानाम् अवबोधनार्थं अनिवार्ये, इति सिसाधयिषितम्। व्यङ्ग्यार्थः अस्मिन्नालाके नूतनतया विभाजितः। व्यञ्जनाया विष्वग्व्याप्तौ याः विप्रतिपत्तयः सम्भाविताः ते दूरीकृताः। प्रस्तावस्यास्य सम्भावितविरोधानां, सीम्नश्च परीक्षापि अत्र विहितास्ति। सम्यग् विचारणायां जातायां स्पष्टीभवत्येतत् यद् व्यञ्जनाया व्याप्तिः न केवलं विशिष्टानि काव्यात्मकानि एव वाक्यानि अवधीकरोति अपितु सर्वविधेषु भाषिकवाक्येषु शक्तिरियं निर्बाधं अथ च नियतं व्याप्रियत, इति।

प्राग्भिरालंकारिकैः व्यञ्जनावादिभिरेतद्विषयं मन्वानैरपि स्पष्टतया कथं नोक्तम्, आकूतम् वा कुत्र कुत्र उक्तम् इत्यादयोऽपि विषया भोजराजमम्मटादीनाम् आशयान् अवलम्ब्य चर्चायामस्यां विशदीकृताः।

काव्यप्रपञ्चबहिर्भूतेषु दैनन्दिनेषु सामान्यवाक्येषु अभिप्रेतानां नैकविधानाम् अर्थानाम् यत् प्राचुर्यम्, तेषु पारस्परिकम् च वैचित्र्यम् दृश्यते, तानि सर्वाणि समञ्जसयितुं व्याख्यातुं च, वक्त्रादिसहकारिकारणानां साहाय्येन प्रवृत्ता व्यञ्जना शक्तिः सर्वत्र प्रसङ्गेषु व्याप्रियते, इति स्वीकर्तव्यमेव।

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अनेक विद्वानों के साथ हुई चर्चाओं से यह विषय स्पष्टतर हुआ था। उनमें Prof Rdhavallabh Tripathi, Prof. Madhav Deshpande, Prof. Dipti Tripathi, Prof. Arindam Chakravarti, Shatavadhani Dr. R. Ganesh Ganesh Kavi, Prof. Girishwar Misra, Prof. Meera Dwivedi, Prof. Omnath Bimli, Prof. Bharatendu Pandey, Dr. Umesh Nepal आदि प्रमुख हैं। इन सभी विद्वानों के प्रति हार्दिक आभार।

इस शोधलेख को ग्रन्थ में स्थान देने के लिए इसके सम्पादक प्रो॰ पीटर शार्फ़ का धन्यवाद।

Prof. George Cardona

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Prakrit in the World of Indian Languages

#IndusThink | Episode 2 | Season 3 | Prakrit in the World of Indian Languages

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