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https://www.academia.edu/…/JDMC_Introduction_%E0%A4%B8…

शिक्षा का वैयक्तिक स्तर पर उद्देश्य है- ‘उच्च चरित्र का निर्माण’ ताकि व्यक्ति अपना हितसाधन कर सके। सामाजिक स्तर पर इसका उद्देश्य है मनुष्य को इस प्रकार समर्थ तथा संवेदनशील बनाना कि वह समाज तथा राष्ट्र के काम आ सके। इन दोनों ही उद्देश्यों की पूर्ति व्यक्ति में अनुकूल उत्तम गुणों का विकास करके किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि हमारी शिक्षा इस लक्ष्य की ओर उन्मुख हो। पिछले अनेक दशकों से जिस प्रकार केवल भौतिक संसाधनों के अधिकाधिक दोहन की प्रक्रिया को सिखाने वाले अनुशासनों को प्राथमिकता दी गयी उससे नवशिक्षित मनुष्य ने किस प्रकार पर्यावरण सहित जीवन की अनिवार्य शर्तों का क्षरण किया है, यह हमसे छिपा नहीं है। “प्रत्यक्ष लाभ दिलाने वाले” वैज्ञानिक अनुशासनों को यदि “मानवीयता सिखाने वाले” भाषिक, साहित्यिक और मानविकी के अनुशासनों के साथ सन्तुलन में पढ़ाया नहीं गया तो आगे की स्थिति और दूभर होने वाली है। इसकी बानगी हमें मिलने लगी है। प्रतिस्पर्धा की अन्धाधुन्ध दौड़ में कोई तो ऐसा स्वर हो जो हमारे सामने जीवन और जगत् के मूलभूत प्रश्नों को उपस्थापित करे और उन प्रश्नों के उत्तर खोजने में हमारी सहायता करे। हमारी प्राचीन, मध्यकालीन भाषाओं का शिक्षण इस उपर्युक्त असन्तुलन को कम करने में हमारा सहायक इस नाते हो सकता है कि इनमें हमारे पूर्वजों का चिरसंचित और सुपरीक्षित ज्ञान सुरक्षित है। वह आज की समस्याओं के विषय में भी हमारा पर्याप्त मार्गदर्शन कर सकता है। इन विषयों की उपेक्षा हमारे लिए घातक होगी।

भारत की प्राचीन तथा मध्यकालीन भाषाओं के बीच ‘संस्कृत’ की उपस्थिति बड़े महत्त्व की है। उसकी ३ बड़ी विशेषताएँ हैं जो उसे भारत की सभ्यता तथा संस्कृति को ठीक से समझने तथा वर्तमान में उसके उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए अनिवार्य बनाती हैं। ये हैं- संस्कृत की प्राचीनता, विपुलता तथा अविच्छिन्नता। संस्कृत वाङ्मय का प्रारम्भ वेदों से होता है जो मानवता के प्राचीनतम दस्तावेज़ हैं। हज़ारों वर्षों तक ज्ञान-विज्ञान की भाषा रहने के कारण संस्कृत में लिखा गया साहित्य विपुल है। साथ ही इसमें विविध कालों में बिना किसी बड़ी रिक्ति के ज्ञान का निरन्तर सृजन होता रहा है। भारत में मानवता की सैकड़ों पीढ़ियों ने हज़ारों वर्षों का निवेश करके जिस अनुभव सम्पदा को विभिन्न प्रकार की रचनाओं में निबद्ध किया है वे रचनाएँ संस्कृत भाषा में सुरक्षित हैं। इसलिए संस्कृत का अपनी समृद्धि के साथ सुरक्षित रहने का अर्थ है- “भारतीयों के मन में स्वदेशी भावभूमि का सुरक्षित रहना”। इस भाषा की निरन्तरता के नाते हम एक बहुमूल्य विचार प्रणाली से परिचित हो पाते हैं जो हमें एक गम्भीर साभ्यतिक बोध देता है, यह साभ्यतिक बोध है-भारतीयता का बोध। यह बोध किसी भी तरह काल अथवा देश की क्षुद्र सीमाओं में सिमटा हुआ नहीं है। इसमें व्यष्टि से लेकर समष्टि तक अस्तित्व के सभी घटकों का बराबर ध्यान रखा गया है। पाश्चात्त्य विचार प्रणाली की भाँति यह चिन्तन सरणि केवल मनुष्य को केन्द्र में नहीं रखता बल्कि मनुष्य इसमें दूसरे घटकों की तरह एक सामान्य घटक के रूप में सहजीविता के सम्बन्ध के साथ आता है।

संस्कृत द्वारा आनीत साँस्कृतिक परम्परा की मूल्यवत्ता को देश में निरन्तर समझा जाता रहा है। इसी कारण इस भाषा की सुरक्षा के निरन्तर प्रयास हमेशा जारी रहे हैं। संस्कृत के बोलचाल में होने का समय यदि २५०० वर्षों पहले (वैयाकरण पाणिनि का सम्भावित समय) का माना जाये, तो उसके बाद के समस्त भारतीय वाङ्मय को हम प्रकारान्तर से संस्कृत को बचाये रखने की प्रविधियों को खोजने और उसके प्रयोग के इतिहास के रूप में भी देख सकते हैं। पाणिनि से पहले और उनके बाद भी अनेकानेक व्याकरणों का लिखा जाना, वार्तालाप के माध्यम से संस्कृत सिखाने वाले बालावबोध पुस्तकों का प्रणयन आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो उपर्युक्त कथन को प्रमाणित करते हैं। इस तरह संस्कृत शिक्षण की प्रविधियों को खोजने का एक लम्बा इतिहास रहा है। भारत में संस्कृत तथा क्षेत्रीय भाषाओं की परम्परा साथ में फलती-फूलती रही है। पुरानी पड़ती संस्कृत भाषा पर क्षेत्रीय प्राकृतों के उदय और विकास के कारण निरन्तर एक दबाव बना ही रहता रहा है, इसलिए उसका शिक्षण हर युग में एक चुनौती की भाँति रहा है। बदलते युग में लोगों की परिवर्तित होती मनोवृत्ति के अनुकूल नयी प्रविधियों का प्रयोग करके भारतीयों ने इस चुनौती का हर समय उत्तर दिया है। वे हमेशा से यह समझते थे कि उत्तम शिक्षक केवल वह नहीं है जो कि शास्त्रों का विपुल ज्ञान प्राप्त कर ले। यह तो उसके व्यक्तित्व की प्राथमिक और आधी योग्यता है। उसकी योग्यता तब पूर्ण होती है जब वह अपने हृदय में स्थित ज्ञान को अपने छात्रों तक ठीक ठीख पहुँचा पाता है। विक्रमोर्वशीय नाटक में कविकुलगुरु कालिदास का स्पष्ट कथन है-

श्लिष्टा क्रिया कस्यचिदात्मसंस्था संक्रान्तिरन्यस्य विशेषयुक्ता।

यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां धुरि प्रतिष्ठापयितव्य एव ॥१.१६॥

😊 कुछ शिक्षकों ज्ञान उनके हृदय में स्थित होता है और कुछ शिक्षकों की महारत विषय को समझाने में होती है। जिस व्यक्ति में ये दोनों गुण विद्यमान है वह शिक्षकों में सबसे आगे बिठाने योग्य है।)

शिक्षण किस प्रकार सुगम, प्रभावी और सुसंगत हो इसके लिए निरन्तर नये रूप में विचार करना होता ही है क्योंकि हर नयी पीढ़ी बदली हुई होती है और उसके लिए पुराने, अनुपयोगी, अपरीक्षित प्रविधियों का उपयोग नहीं किया जा सकता। हमारा देश विश्व के कई अन्य देशों की तरह उपनिवेशीकरण के कठिन दौर से निकलकर आया हुआ एक देश है जो उपनिवेशीकरण की अनन्तरभावी प्रक्रिया-यूरोपीयकरण से बहुत बुरी तरह से घिरा हुआ है। यह प्रक्रिया सीधे देशज भाषाओं और संस्कृतियों पर आघात करती है। भारत में यह प्रक्रिया पिछले दशकों में और बढ़ गयी है। संस्कृत चूंकि देशज संस्कृतियों की रक्षक और देशज भाषाओं की सुरक्षा की प्रतिभूति है इसलिए पाश्चात्त्य दबावों से सबसे पहला और अधिक दुष्प्रभाव उसी पर पड़ता दीखता है। फलतः संस्कृत का शिक्षण पहले की अपेक्षा और चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। एक उदाहरण लें, आजकल की हिन्दी में अवांछित रूप से बढ़ते हुए अंग्रेज़ी के शब्दों के कारण संस्कृत पढ़ाते समय उन तत्सम शब्दों को छात्रों को नये सिरे से बताने का श्रम करना पड़ता है जो कुछ समय पहले तक हिन्दीभाषियों (या अन्य क्षेत्रीयभाषियों) के लिए सहज-सुलभ थी। यही दशा अन्य सांस्कृतिक तथा दार्शनिक संप्रत्ययों के शिक्षण की भी है। बदलते हुए समय में लोगों की प्राथमिकताएँ बदल गयी हैं क्योंकि उनकी समस्याएँ बदल चुकी हैं। इन बदलते मूल्यों वाले परिवारों में पले-बढ़े छात्र जब शिक्षकों के सामने आते हैं तो वे बिलकुल नये होते हैं। उन्हंब पुरानी तकनीकों से नहीं पढ़ाया जा सकता। उनके लिए नयी प्रविधियों का अन्वेषण करना ही होता है। यह बात किसी भी संस्कृत अध्यापक के लिए शास्त्रीय ग्रन्थों की सुरक्षा जितनी ही महत्त्वपूर्ण होनी चाहिए। दुर्भाग्यवश इस बिन्दु की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया जा पा रहा है।

ऐसे में यह देख पाना बहुत प्रसन्न करता है कि जानकी देवी मेमोरियल महाविद्यालय की युवा एवं ऊर्जस्वी संस्कृत अध्यापकों ने इस ओर एक सार्थक प्रयास किया है। उन्होंने कक्षाओं में अनेक वर्षों के अपने प्रेक्षणशील अनुभवों के आधार पर संस्कृत के विविध शास्त्रो के शिक्षण में आने वाली समस्याओं को छात्रों की दृष्टि से एकत्रित किया है, तथा उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करके उनके उत्तर सामने रखने का प्रयास किया है। साहित्य तथा दर्शन का अध्यापन किस प्रकार उनकी वैज्ञानिकता तथा उपयोगिता को सामने रखकर किया जा सके इसका निदर्शन भी किया गया है। निश्चित ही उनके इस प्रयास से अध्यापक समूह बड़े स्तर पर लाभान्वित हो सकेगा क्योंकि बदलते समय में शिक्षण की ये समस्याएँ सबकी साझी हैं और उनके समाधान मंा नयी प्रविधियों की खोज भी साझे प्रयासों से ही सम्भव है। इस उपक्रम को प्रारम्भ करके उसे पर्यवसान तक पहुँचाने के लिए मैं महाविद्यालय की प्रधानाचार्या तथा शिक्षक प्रभारी का विशेष धन्यवाद देता हूँ तथा सभी लेखकों का अभिनन्दन करता हूँ।

बलराम शुक्ल

संस्कृत विभाग

दिल्लओी विश्वविद्यालय

संस्कृत वाङ्मय में गीताओं की एक लम्बी परम्परा है। महाभारत के भीष्मपर्व की भगवद्गीता सम्भवतः इन सबकी मूल प्रेरणा रही है। स्वयं महाभारत में अनेक गीताएँ हैं। सब एक से बढ़कर एक। गीताप्रेस ने महाभारत तथा विविध पुराणों से उद्धृत २५ गीताओं का संकलन कर उन्हें सानुवाद प्रकाशित किया है। ये गीताएँ प्रायः लघुकाय पुस्तिकाएँ हैं। प्रासंगिक संवाद के दौरान एक वक्ता किसी प्राचीन परम्परिक छोटी घटना का स्मरण दिलाकर उससे सम्बन्धित श्लोकों के समूह को उद्धृत करता है जिन्हें समाज में शताब्दियों से गाया जाता रहा होगा। इसी नाते इन श्लोकों को गीता नाम दिया गया होगा।

इन्हीं में से एक है – पिंगलागीता। यह महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत भीष्म तथा युधिष्ठिर के संवाद के रूप में प्राप्त होता है। इस संवाद के अन्दर सेनजित् राजा और ब्राह्मण का संवाद है। ब्राह्मण अपने कथ्य के समर्थन में पिंगला की छोटी सी कहानी और उसके अद्भुत गाथा वचन उद्धृत करता है।

पिंगला एक वेश्या है। वह एक प्रतिश्रुत स्थान पर जाकर अपने किसी प्रेमी की प्रतीक्षा कर रही होती है। जब वह बहुत देर तक नहीं आता है तो उसके मन में वैराग्य का संगीत बजने लगता है। केवल ५ श्लोकों में निबद्ध उसके वचन पूरे संस्कृत वाङ्मय में अपने निर्गुण स्वर के कारण दुर्लभ माने जा सकते हैं–

१.
उन्मत्ताहमनुन्मत्तं कान्तमन्ववसं चिरम् ।
अन्तिके रमणं सन्तं नैनमध्यगमं पुरा ॥ ४८॥

मेरा सदा सावधान प्यारा यार
हमेशा से मेरे पास ही था,
और मैं भी उसके साथ ही थी
लेकिन मैं ऐसी बावली, कि आज तक उसे पहचान ही नहीं सकी थी।
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२.
एकस्थूणं नवद्वारमपिधास्याम्यगारकम् ।
का हि कान्तमिहायान्तमयं कान्तेति मन्स्यते ॥ ४९॥

उसके होते कोई भी स्त्री और किस दूसरे को अपना प्रियतम मानेगी?
ऐसा प्रिय जब मेरे पास आ चुका है
तो अब मैं इस एक खम्बे और नौ दरवाज़ों वाले छोटे से घर (शरीर) को बन्द ही कर रखूँगी।
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३.
अकामां कामरूपेण धूर्ता नरकरूपिणः ।
न पुनर्वञ्चयिष्यन्ति प्रतिबुद्धास्मि जागृमि ॥ ५०॥

अब तो मैं जान गयी हूँ, जाग गयी हूँ – कामना विहीन हो गयी हूँ।
अब फिर से नहीं ठग सकेंगे मुझे–
वासना का चोंगा पहने, ये धूर्त नारकी पुरुष
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४.
अनर्थोऽपि भवत्यर्थो दैवात्पूर्वकृतेन वा ।
सम्बुद्धाहं निराकारा नाहमद्याजितेन्द्रिया ॥ ५१॥

पुराने पुण्यों से कई बार अनर्थ वाली परिस्थितियाँ भी सौभाग्यजनक हो जाती हैं
अब मैं सब कुछ जान कर आशा–रहित हो गयी हूँ
आज मैं पुरानी पिंगला नहीं हूँ जो इन्द्रियों की दासी थी
––––––––
५.
सुखं निराशः स्वपिति नैराश्यं परमं सुखम् ।
आशामनाशां कृत्वा हि सुखं स्वपिति पिङ्गला ॥ ५२॥

आशाओं के फंद में नहीं पड़ा है जो वह आनन्द से सोता है
क्योंकि आशा का न होना परम सुख है
आशाओं को अनाशा बना सकी है पिंगला
इसलिए वह अब चैन की नींद सोती है।
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नीचे दिये गये लेख के शीर्षक में आप कन्नड के अतिरिक्त किसी भी दूसरी भारतीय भाषा को रख सकते हैं, वाक्य समान रूप से सत्य होगा।https://www.thehindu.com/books/books-authors/vasudhendra-kannada-writer-historical-fiction-tejo-tungabhadra-india-portugal-lisbon-vijayanagara-interview/article66043833.ece

शायद दक्षिण की भाषाओं पर यह ख़तरा अधिक हो, क्योंकि वहाँ के राजनीति दलों ने हिन्दी विरोध के नाम पर अंग्रेज़ी को ख़ूब प्रश्रय दिया। यहाँ तक कि इसी विरोध पर अनेक दलों का अस्तित्व टिका हुआ है। वर्तमान सरकार ने “राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020” के अन्तर्गत हर प्रान्त में जब शिक्षा का माध्यम मातृभाषाओं को रखने का प्रस्ताव दिया है तो इसमें भी द्रमुक के नेताओं को हिन्दी का आधिपत्य लग रहा है। इससे यह खुल जाता है कि उन्हें वे अपनी मातृभाषाओं के नाम पर केवल राजनीति करते रहे हैं। इसके कारण अगर अंग्रेज़ी को वरीयता मिलती है तो भी उन्हें कोई समस्या नहीं है। देखा गया है कि दक्षिण में कन्नड आदि भाषाओं में पिछली शताब्दी में लिखे गये अनेक गौरव ग्रन्थ अंग्रेज़ी में अनूदित हो रहे हैं। यह अनुवाद दूसरों के लिए नहीं बल्कि वहीं के लोगों के लिए भी हैं, क्योंकि अगली पीढ़ी उन ग्रन्थों को अपनी मातृभाषा में नहीं पढ़ सकती। “द हिंदू” के इस साक्षात्कार में लेखक का यही कहना है – “The younger generation prefers English books and English is devouring Kannada day by day. “

लेकिन समस्या हिन्दी–भाषियों के साथ भी है। दक्षिण की भाषाओं को तो छोड़ दें, उन्होंने हिन्दी की सजातीय मराठी, गुजराती आदि भाषाओं को समझने, सीखने और उनका उपयोग करने तक की उदारता नहीं बरती। उन क्षेत्रों में पीढ़ियों तक रहकर भी नहीं वे ऐसा नहीं करते। दशकों तक वहाँ केवल सांकृतिक दबाव की तरह रहते हैं। पूछने पर कहते हैं– हमें इसकी आवश्यकता नहीं होती।

भारत में बहुभाषी होने में तर्क ‘आवश्यकता’ नहीं बल्कि ‘संवेदनशीलता’ को होना चाहिए। एक दूसरे को ठीक ठीक जानने की ललक। यह हमारी राष्ट्रीय एकता और हम सबके सौहार्दपूर्ण ढंग से सुसंगठित होने में कारण है। यह काम किसी भी तथाकथित ‘ग्लोबल लैंग्वेज’ या ‘लिंगुआ फ़्रैंका’ से नहीं हो सकता।
भाषा सामान्यतः हम आवश्यकता पर सीखते हैं। लेकिन भारत जैसे देश में भाषा शिक्षण का कारण संवेदनशीलता होना चाहिए, सम्मान होना चाहिए- एक दूसरे की मातृभाषाओं के लिए सम्मान। बिना उसकी भाषा जाने उस व्यक्ति के हृदय को जानना असंभव होता है। इस दृष्टि से हिन्दी जैसी प्रभावी भाषाओं की भूमिका बहुत बड़ी है। लेकिन यह काम केवल एक योजक सूत्र के रूप में अपने आपको प्रस्तुत करने मात्र से नहीं हो सकता। हमारी दृष्टि हिन्दी के प्रसार प्रचार की होती है, हिन्दीतर भाषाओं को सीखने की प्रायः नहीं होती। यह एकतरफ़ा तरीक़ा है। जो सौहार्दपूर्ण नहीं है। “हमें आवश्यकता नहीं है”, यह एक असंवेदनशील सोच है। इस असंवेदनशीलता से भारत के भाषिक समूहों (जनसमूहों) में पारस्परिक स्नेह तो कम होता ही है, साथ ही साथ एक भाषा मात्र को बस मान लेने वालों की विश्वदृष्टि भी कूप–कच्छप की तरह अविकसित रह जाती है।

लेकिन इसी बहुभाषिकता को मुग्धतावश या षड्यन्त्र के तहत अंग्रेज़ी के आधिपत्य में भी तर्क के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह हास्यास्पद है। अंग्रेज़ी तो हमेशा एकभाषिकता को बढ़ावा देती है। अनेकभाषिकता के नाम पर अंग्रेज़ी को छूट देना एक खतरनाक किस्म का भोलापन है (जिसे अब तक इतना अधिक दिया गया है कि हानि अपूरणीय और चक्र अप्रत्यावर्तनीय हो चला है )। ध्यान से देखें तो जानना कठिन नहीं होगा कि भारत में द्विभाषी अथवा बहुभाषी वही लोग हैं जिनकी दूसरी भाषा अंग्रेज़ी है। जिनकी पहली भाषा अंग्रेजी है वे क़तई बहुभाषी नहीं हैं। शीघ्र ही अंग्रेज़ी द्विभाषीय लोगों की पहली भाषा को नष्ट करके उन्हें पचा जाती है– चीनी रेड फिश की तरह जो दूसरी मछलियों को खा डालती है। यह एक ऐसी ग्लोबल भाषा है जिसके अनुदार चरित्र में दूसरी भाषाओं के लिए स्थान नहीं है।

“भारत में किसी एक राष्ट्रभाषा की अपेक्षा सभी भाषाओं की सम्मानपूर्ण सुरक्षा और पारस्परिकता राष्ट्रीयता को अधिक सुदृढ करेगी। एक राष्ट्रभाषा भी इसी उपाय से व्यापक स्तर पर स्वीकृत हो सकेगी।”

पण्डित अम्बिकादत्त व्यास (१८५८–१९००) स्वातन्त्र्यपूर्व भारत में आधुनिक संस्कृत के श्रेष्ठतम रचनाकारों में से हैं। उन्होंने अपने समय में संस्कृत को पुनरुज्जीवित करने के उल्लेखनीय प्रयत्न भी किये थे। “कथाकुसुम” नामक एक सरस पुस्तक का लेखन उन्होंने संस्कृत के प्रारम्भिक ज्ञान के लिए किया था। बन्धुवर श्री नित्यानन्द मिश्र ने इसका उपबृंहण करके “कथाकुसुमसौरभम्” नाम से चौखम्बा क्लासिका से अभी प्रकाशित कराया है। इस अभिनन्दनीय रचना का प्राक्कथन लिखने का सुअवसर मुझे मिला है, जिसे में यहाँ अविकल रूप में उद्धृत कर रहा हूँ। इसमें प्रकारान्तर से वर्तमान संस्कृत सम्बन्धी कुछ विमर्शों को भी सम्मिलित किया गया है–।
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  नान्दीवाक्

                          ॥देववाङ्निष्कुटाक्रान्तं कथाकुसमसौरभम्॥ 

    संस्कृतवाचा सह वर्तते भारतीयचेतनायाः कश्चिद् गर्भनालसम्बन्धः। भारतीयाः परस्परं येन वाक्प्रचारेण परस्परं प्रत्यभिजानन्ति तदस्ति संस्कृतम्। तत्र कारणमिदं यद् भारतीया संस्कृतिः अनयैव वाचा परिघटिता समर्धिता चास्ति। संस्कृतभाषा न केवलं स्वस्वरूपेण शताब्दीर्यावत्, अपितु स्वसन्ततिभूतभाषाणां माध्यमेन सहस्राब्दीर्यावत् भारतीयसंवेदनायाः, तन्मनीषायाश्च परिपोषणं कृतवती। भाषितभाषारूपेण संस्कृतम् सापेक्षतया अल्पीयांसं कालं, क्षोदीयश्च क्षेत्रम् अधिकृतवत्, परन्तु भारतस्य योजकभाषारूपेण पराभाषारूपेण च इदं भूयांसं कालं बंहीयः क्षेत्रं च व्याप्तवत् अधुनापि च निरन्तरं व्याप्नोति। अर्वाचीनकाले संस्कृतवाचः पुरतः स्वाभाविकैः आह्वानैः सहकृतानि नैकान्यन्यान्यपि आह्वानानि पाश्चात्त्यमतानुवर्तिनां संस्कृतिद्रुहां विविधदुष्प्रचारैरपि दृश्यन्ते। यत्र, ‘संस्कृतस्य मृत्युः’, ‘तस्य अनुपयोगिता’, ‘तद्गता अनुत्पादकता’, ‘लोकविरोधिता’, ‘पश्चाद्गामिता’ इत्येता नवशिक्षितेषु पाश्चात्त्यसंस्कृतेश्चाकचक्येन चकितचकितेषु प्रसभं सञ्चार्यन्ते। दौर्भाग्येण एतादृशदुष्प्रचारवशात् नैराश्यभावः केषुचिज्जागर्ति संस्कृतं प्रति।

तत्रास्माकमिदं प्रेक्षणं यत् प्रतियुगं नवीनसमस्यानुगुणम् अभिनवसमाधानानि अपि संस्कृतपक्षे समुद्भवन्ति एव। एतर्हि अपि संस्कृतस्य पक्षे नूतनानि शुभशकुनानि दृश्यन्ते। नवीनेऽस्मिन् युगे समस्यानामेतासां प्रतीकारप्रकारः प्रायः गतेषु दशकेषु समापन्नायाः संचारक्रान्तेः कारणात् सम्पद्यमान इव लक्ष्यते। संस्कृतवाङ्मयस्य अध्येतारः, विद्वांसः, नवीनसाहित्यसर्जनसक्षणाः अद्यापि भारतस्य प्रतिकोणं विद्यन्ते। पूर्वं यथा ते पारस्परिकप्रत्यभिज्ञानहीना विप्रकीर्णा दूयन्ते स्म नाद्यत्वे तथा। संचारक्रान्त्या तेषु मिथः सम्पर्कः प्रगाढीकृतः। अनया परिघटनया संस्कृतस्य विप्रकृष्टानि असंहतानि स्फुलिङ्गानि अपूर्वया कयाचिदूर्जया ज्वालीभवन्ति इव परिलक्ष्यन्ते। परिज्ञातमिदं भवति यत् संस्कृते यदपि नैराश्यमदृश्यत तत् खलु संस्कृत-परिदृश्यस्य अखण्डतया दर्शनाभावादेव आसीत्। अधुना पुनर्, वयम् अवगन्तुं पारयामो यत् संस्कृतस्य सनातनी परम्परा न केवलं पूर्णतया अक्षुण्णा तिष्ठति, अपितु भूयसीभिर्नवीनया युगानुगुणया प्रयोगसम्पत्त्या प्रतिवासरम् आढ्यीक्रियमाणापि अस्ति। साम्प्रतं वयं सुज्ञातुं प्रभवामो यत् एतर्हि संस्कृतस्य प्रातिनिध्यं न केवलं पारम्परिकाः पण्डिता वहन्ति, अपितु संस्कृतेतरविषयेभ्य आजीविकां लब्धवन्तः अगणिता जनाः संस्कृतगतां वैयक्तिकीं रुचिमनुरुध्य एतस्मिन्नुत्कृष्टां योग्यतां सम्पादयन्तो गीर्वाणवाण्याः स्वरं दशसु दिक्षु सन्धुक्षयन्ति। एते संस्कृतमनुपजीवन्तोऽपि संस्कृतमुपजीवयन्ति। एष वर्तते संस्कृतस्य तरुणः तरुणतरश्च वंश्यः यद्वशात् संस्कृतस्य युगीना क्रान्तिर्विलसति।  

संस्कृतमधिकृत्य नैराश्यं प्रसारयन्तो वहन्तो वा जनाः समाजे नैकविधा लक्ष्यन्ते। प्रथमं तावत् ते ये संस्कृतम् अज्ञात्वैव ईर्ष्याकषायितास्तत्प्रतीपतया घटन्ते। वस्तुतः भारतं वैविध्यपूर्णम्। अत्र जनानां भेदकानि तत्त्वानि सुबहूनि, योजकानि च तत्त्वानि अल्पीयांसि। तत्र आस्माकीना संस्कृतिः, आस्माकी राष्ट्रियता इत्यादीनि कानिचन सूत्राणि सन्ति यानि अस्मासु एकत्वस्य भानं निरन्तरं कारयन्ति। संस्कृतमपि भारतस्य एकीकरणौपयिकेषु सूत्रेषु अन्यतमम्। अतः संस्कृतद्वेषो भारतद्वेषस्य प्रायः पर्यायभूतः वर्तते। परन्तु न सर्वे संस्कृतद्रुहो भारतद्रुहः। केचन मूर्खतावशादपि एतदाचरन्तो दृश्यन्ते। संस्कृतं प्रति नैराश्यं भजमाना अन्ये जनास्ते ये विदेशे स्वदेशे वा स्थित्वा औपनिवेशिकप्रभुभिः संप्रसारितेन इन्द्रजालेन ग्रसितचेतसो विद्यन्ते स्वयं वा औपनिवेशिकमनोवृत्तिमन्तो भवन्ति। एते भारतीयचैतन्यस्य पुनरुत्थानस्य सम्भावनामपि निराकुर्वन्ति । नवीनभारते ते संस्कृतस्य समुन्मीलनेन यत् प्रव्यथितास्तत्र कारणमिदं यद् एषा परिघटना तेषां कृत्रिमां श्रेष्ठतां विरुणद्धि, तां प्रसभं खण्डयति च। तृतीयप्रकारका जनास् स्वयं संस्कृतस्य पुरातनाः वंश्याः सन्ति। तेषां नैराश्यं सहानुभूतिजनितम् अतः सकारात्मकमस्ति। तैः विद्यावयोवृद्धैः तत् सांस्कृतं वैभवं दृष्टं यदा प्रायः प्रतिग्रामं संस्कृतपाठशाला अवर्तन्त। विश्वत्र संस्कृतस्य महान्तः पण्डिता दृश्यन्ते स्म। संस्कृतं दिव्यवस्तुवत् सर्वत्र सम्मान्यमासीत्। आङ्ग्लाधिपत्यस्य षड्यन्त्रैः विशीर्यन्ती सहस्राब्दप्राचीना संस्कृतशिक्षाव्यवस्था स्वतन्त्रतानन्तरम् आगतस्य प्रशासनस्य दुर्नयानां कारणात् तेषामक्ष्णोरेव प्रायः ध्वंसं प्राप्तवती। एतत् सर्वं पश्यतां तेषां दुःखं नैराश्यं च नितरां स्वाभाविके एव। नैराश्यस्य वाहकानां प्रथमद्वितीयप्रकारकाणां (ये ईर्ष्यालवः षड्यन्त्रकारिणश्च भवन्ति) समुपचारः क्रमशो भवति- उपेक्षा प्रबलतर्कैश्च तेषां खण्डनम्। तृतीयप्रकारका अपि जना उपर्युक्तप्रकारक-संस्कृतक्रान्त्या अधुनावगन्तुं कल्पन्ते यत् अर्वाचीनेऽस्मिन् काले संस्कृताध्ययनस्य लोकतान्त्रिकीकरणं, सार्वजनिकीकरणं च भवतः। एतर्हि संस्कृतं न केवलम् अद्भुतं पारलौकिकं वा वस्तु, अपितु नितान्तं सुलभतया सर्वेषां पुरतः समुपतिष्ठन्ती काचित् सम्पत्तिः। किञ्च, संस्कृतस्य प्राक्तनी शिक्षाप्रणाली प्रायेण प्राचीनां पृथग्विधाम् च आर्थिकीं व्यवस्थामुपजीवति स्म। वृत्तायां प्राचीनायाम् अर्थव्यवस्थायां संस्कृतशिक्षणस्य तादृशी प्रणाली यदि मन्दतामिता तर्हि न वर्ततेऽत्र आश्चर्यभूयस्त्वम्। परन्तु शिक्षणप्रकारस्य तनूभवनस्य तात्पर्यम् विद्याया समाप्तिर्नास्ति। भारतीयज्ञानपरम्परा तस्या वाहिका संस्कृतभाषा तु भारतीयानां चेतनायाः पर्यायभूतास्ति। यदापि भारतीया आत्मनः प्रति सचेतस्का भवन्ति तदा नूनमेव संस्कृतं परामृशन्ति, फलतः तस्य विकासोऽपि अवश्यं भवत्येव। यदि पुरातनीभी रीतिभिर्न भवति तदा एतदर्थं नवा मार्गा समुपकल्प्यन्ते। प्रकृते युगे संचारक्रान्तिवशात् एवंविधा बहवः पन्थानः समुद्घाटिताः येन बहवः संस्कृतेतरजना अपि अनेन आत्मनो योजयितुं समर्था भवन्ति। किं बहुना, संस्कृतस्य पारम्परिकी शिक्षापद्धतिरपि अनेन नवीनेन उद्विकासेन परिपोषिता भवति।

संस्कृतस्यैष युवा युवतरश्च वंश्यः अनेकधा प्राक्तनवंश्यात् समर्थतरो भवति। सत्यमिदं यत् प्राक्तनेषु कालेषु यास्माकं महनीया पण्डितपरम्परा सा गभीरज्ञानकारणात् निष्प्रतियोगिनी अस्ति तथापि अद्यतनस्य नवीनवंश्यस्य ज्ञानप्रकारः बहुशः सविस्तरतरः उपयोगयोग्यतरश्चास्ति। नवीनानां प्रविधीनां प्रयोगवशात् ते दक्षतराः वर्तमानजनताभिश्च प्राप्यतराः सन्ति। सामाजिकमाध्यमैश्च एते अतिमात्रं सन्निकृष्टा अपि सन्ति। भूयस्सु एतादृशेषु नवपण्डितेषु अर्हति अस्मन्मित्रं नित्यानन्दमिश्रः अग्रपङ्क्तिम्। न केवलमेतस्मिन् विराजते प्रखरं पाण्डित्यम् अपितु तस्य पाण्डित्यस्य जनोपयोगयोग्यं प्रचुरप्रचारसामर्थ्यमपि। कालिदासोक्तसुशिक्षकवदेतस्मिन् अधिकरणे न केवलं आत्मसंस्था श्लिष्टा क्रिया अपितु वर्तते विशेषयुक्ता संक्रान्तिरपि। आधुनिकज्ञानप्रणालीसु नितरामधीती अयम् विद्वान् विविधसामाजिकमाध्यमानि संस्कृतकार्यार्थम् उपयुज्य क्रियावान् सन् यावता भूयसीं जनताम् उपकुरुते तावता प्रायो न कश्चिदपि कुर्वन् दृश्यते। संस्कृतं पुङ्खानुपुङ्खं ज्ञात्वैव नास्य धीमतः सन्तोषः अपितु एतस्य ज्ञानस्योपयोगोऽनेन संस्कृतिसंवर्धानाय, धर्मध्वजोत्तोलनाय, विज्ञानवैशद्याय, भ्रान्तिभ्रंशाय च प्रभावशालितया कृतः, क्रियते च अविच्छेदेन। सुनाम-नाम्नः पुस्तकस्य रचनमेनेन ममैतद् वचनम् उपोद्बलयति यन्माध्यमेन समाजे विश्वत्र प्रसरन्ती दुर्नामकरणस्य सद्यस्का अपसंस्कृतिः न केवलं निवार्यते अपितु तां समीकर्तुं सुन्दराणि नामानि अपि पुरस्क्रियन्ते। वचने रचने च सर्वत्र मिश्रवर्यस्य संस्कृतप्राकृतयोः यः प्रयोगाग्रहः स नूनमेव निजभाषारक्षणानुरोधित्वात् नितरां सत्कारार्हः। अनेन अनेकान्यन्यानि पुस्तकानि जनमनोहारीणि अपरयापि वाचा रचितानि, अथ च स्वयमपि निरामयाभिधं प्रकाशनसंस्थानं समुद्घाट्य महत्त्वाधायीनि पुस्तकानि प्रकाशमानीतानि।

एतस्यैवेषा नूत्ना प्रकाश्या कृतिः- कथाकुसुमसौरभम् अस्माभिः स्वागतवचोभिः पुरस्क्रियते। नैकधा स्तुतिमर्हति एषा कृतिः। यथा, पण्डितप्रवरस्य श्रीमदम्बिकादत्तव्यासस्य पुस्तकोपबृंहणरूपा सती एषा गोत्रसंवर्धकत्वे पारम्परिकत्वेन च स्तूयते, विविधव्याख्याभिः संवलिता सती परिपूर्णाङ्गत्वाद् वन्द्यते, त्रिभाषाभूषिता सती भूयसां जनानां समुपकारकत्वेन पनाय्यते। वयं तु एतां कृतिं अस्मत्पूर्वपुरुषैः नैकसहस्राब्दानुवर्तिनां संस्कृतशिक्षणप्रविधिमार्गणप्रयासानाम् मध्ये नूतनतमां भावयित्वा स्वागतवचांसि व्याहरामः। कीदृशोऽयं चिरन्तनप्रयासो भारतीयानां संस्कृतसुरक्षार्थमति किञ्चिदेवाग्रे पश्यामः।

यथा उपक्रम एव उक्तं, भारतस्य बृहत्तरभारतस्य वा आत्मपरिज्ञानाय संस्कृतमतीव नान्तरीयकं। एतस्मादेव कारणात् लोकभाषारूपेण असदपि संस्कृतं भारते सर्वदा वर्तते, भारतीयैश्च सर्वथा सुरक्ष्यते। एतस्य हानिः समस्तस्यापि संस्कृत्याधारस्य हानिरिति निश्चप्रचं सहस्राब्देभ्योऽस्माकं पूर्वपुरुषैः सुज्ञातम्। अत एव तैः संस्कृतस्य यथाकथंचिदपि सुरक्षार्थं निरन्तरं प्रयतितम्। एतदेव कारणं यत् संस्कृतशिक्षणार्थं विविधप्रविधीनाम् अन्वेषणं पाणिनेरनन्तरमपि संस्कृतव्याकरणमाध्यमेन, प्राकृतभाषिकबालावबोधानाम् माध्यमेन निरन्तरं प्रावर्तत एव। एषा प्रवृत्तिस्तथा प्रगाढास्ति यथा भारतस्य सार्धद्विसहस्रवर्षाणां बौद्धिकम् ऐतिह्यम् प्रकारान्तरेण “संस्कृतस्य शिक्षणार्थं अन्विष्यमाणानां प्रविधीनाम् ऐतिह्यम्” इति कृत्वापि द्रष्टुं शक्यते।

भारते संस्कृतस्य विविधक्षेत्रीयाणां प्राकृतभाषाणां च परम्परा मिथः सहकारेण विकासं विस्तारं चालभत।  लोकभाषारूपाद् विचलितायां, प्राचीनतां च गतायां संस्कृतवाचि नवनवतया समुदितानां विकासमीयुषीणां च क्षेत्रीयभाषाणाम् अधिभारः सदैवानुभूयत एव स्म। यथाह भगवान् भाष्यकारः भूयांसोऽपशब्दा अल्पीयांसः शब्दा इति। एतस्मात् कारणात् प्रतियुगं संस्कृतस्य शिक्षणं प्रति प्रतिनवानि आह्वानानि प्रदर्शयति। अत एव खलु सत्यपि सर्वाङ्गपूर्णे पाणिनीयतन्त्रे, सरलतरं भोजराजीयं हैमं वा पदशास्त्रं समुदेति, संक्षिप्ततरं कातन्त्रं सारस्वतं वा समुदेति। सत्स्वपि च तेषु पूर्वेषु सर्वेषु लोकभाषाभिः बालावबोधा विरच्यन्ते, सम्भाषणप्रयोगौपयिका ग्रन्था वा ग्रथ्यन्ते। परिवर्तमानयुगानुगुणं परिवर्तमानजनमनोवृत्तीरभिलक्ष्य अभिषेणयताम् आह्वानानाम् प्रतिवचनं प्रदातुं विद्वांसः सदैव सज्जा अतिष्ठन्। अतीवोचितमिदं श्रुतं मे गोपायेति श्रुतिवाक्यान्यनुसरताम् अस्माकं पूर्वपुरुषाणां विपश्चिताम्।

    अत्र इदं ध्यातव्यमस्माभिः सर्वैरपि- साम्प्रतिके काले संस्कृतसुरक्षार्थं यानि आह्वानानि सन्ति तानि पूर्वभ्यो युगेभ्यः कठोरतराणि जायामानानि सन्तीति निश्चप्रचम्। तत्र भवन्ति भूयांसि कारणानि। तत्रापि भवत्ययं विशेषः- देशोऽयमस्माकं जगतः नैकदेशा इव उपनिवेशकालस्य अन्धकारमयीं काराम् उत्तीर्य समागतो कश्चन नवीनो राष्ट्रः, यः औपनिवेशिकताया अनन्तरभाविन्या युरोपीयकरणस्य प्रक्रियया धृतराष्ट्रशक्त्या भीम इव निर्दयं, प्रगाढं, निष्ठुरं च परिष्वक्त आस्ते। एषा प्रक्रिया देशजभाषासु संस्कृतिषु च साक्षाद् आक्रामति। ताः प्रति उपनिविष्टजनताया मनस्सु काञ्चिद् हीनभावनां प्रपूरयति। संस्कृतं यतः भारतदेशजानां सर्वासां संस्कृतीनां सुरक्षिका तत्तद्देशजभाषाणां च स्वास्थ्याय प्रतिभूतिः, अत एव सैव पाश्चात्त्यशरारूणां प्रधानशरव्यभूता दृश्यते। तां प्रति औपनिवेशिकप्रभुभिरुपदिष्टा भारते सर्वतः प्रसृता हीनभावना तस्याः शिक्षणं कठिनीकरोति। अग्रे इदमेकमुदाहरणम्- अद्यत्वे भारतीयभाषासु अवाञ्छिततया परिवर्धमानानाम् आङ्ग्लशब्दानां कारणवशात् गृहेषु बालाः तत्समतद्भवादिशब्दार्थाभ्यां मातुः स्तनाभ्याम् इव एकपदे दूरीक्रियन्ते। ततः किम् भवति? संस्कृताध्यापनकाले तेषां तेषां तत्समशब्दानां शिक्षणमपि नवीनकर्तव्यतया आपतति अस्मत्पुरतः, ये पूर्वं हिन्द्यादिलोकभाषासु स्थिरपदतया, प्रचुरप्रचारतया च सहजं सुलभा अवर्तन्त। इदं केवलमेकमुदाहरणं भूयसां मध्यात्। अत एव एतस्मिन् काले पूर्वतोऽप्यधिकं जागरूकतया विविच्यास्माभिः संस्कृतशिक्षणप्रविधयः अन्वेष्टव्याः, प्रयोक्तव्याः, प्रसारयितव्याः, येन संस्कृतविद्या सुरक्षिता वीर्यवती च स्यात्।

मिश्रवर्यस्यैष यत्नः पूर्वोक्ताया एव चिरन्तन्याः संस्कृतसुरक्षणप्रवृत्तेर्युगानुकूलमनुसरणम्, अतो नितान्तमेव स्वागतमर्हति। किञ्च, एतत्कृतिगत-परिमल-माध्यमेन नित्यानन्दो मिश्रः संस्कृतव्याख्यानपरम्परायां नवीनं कञ्चिद् योगं कुर्वन्निव भाति। वयमाशास्महे यत् भविष्यति अनेन इतरेऽपि ग्रन्था व्याख्यास्यन्त संस्कृतपाण्डित्यपरम्परा च समर्धयिष्यत इति। एवमेव पुरोवाचि कतीनांचन सुन्दरपद्यानां करणेन कवित्वमप्यस्य स्फुटीभवति, विद्वत्त्वकवित्वयोः सुवर्णसौरभसंयोगो येनास्मिन् लक्ष्यते। गन्धसार-महक्क-अधिवासवर्गाः पुनः विविधवाङ्मयैः सहास्य परिचयं पिशुनयन्तः एतस्य रासिक्याधिक्यं ख्यापयन्ति। यथा कथाच्छलेन बालानां नीतिस्तदिह कथ्यते इतिप्रतिज्ञामादाय हितोपदेशः प्रवृत्तः प्रथितश्च तथैव कथामिषेण सर्वेषां संस्कृतज्ञानदायकत्वेन कथाकुसुमसौरभमपि प्रवर्तते। सौरभमस्य कृतेः सकललोकमनोहारितया, सर्वजनभोग्यतया च सर्वत्र प्रथतामिति भगवतीं सरस्वतीं संप्रार्थ्य वयं प्रसीदामः।

            संस्कृतशिक्षणसारैर्विविधवचोभिश्च परिमलोद्गारैः।

  आनन्दयतु समन्तान्नित्यानन्दः सुधीः सर्वान्॥

                                                                        इति निवेदयति

                                                                        बलराम शुक्लः

                                                                       [श्रावणशुक्लतृतीया, सं॰२०७९]

भारतीय साँचे की फ़ारसी कविता

(प्रो॰ वागीश शुक्ल)

–––––––––––––––––––––––––––––

फ़ारसी साहित्य अपने विशिष्ट काव्य-गुणों के कारण अपना सानी नहीं रखती। इसके सौन्दर्य का अनुमान विशेषज्ञों के इस प्रेक्षण से लगाया जा सकता है कि उर्दू कविता की जो हृदयावर्जकता है वह फ़ारसी के सम्पर्क तथा उसके प्रतीक आदि उपादानों के उपयोग के कारण सम्भव हो पाता है।

भारत का मध्यकाल फ़ारसी भाषा और साहित्य के विशेष पल्लवन का काल रहा है। मध्यकाल के अनेक राजनैतिक और सांस्कृतिक कारणों से भारत में फ़ारसी कविता की एक विशेष शैली का विकास हुआ जिसे ‘सब्के हिन्दी’ अथवा ‘फ़ारसी कविता का भारतीय सम्प्रदाय’ कहते हैं। इस विशेष शैली में भारतीय तत्त्वों के मिलने से ऐसी अद्भुत कविताओं का सृजन हुआ जो ईरान में लिखी गयी फ़ारसी कविताओं में अब तक उपलब्ध नहीं थीं। इस शैली ने फ़ारसी काव्य जगत् को बड़े बड़े कवि प्रदान किये जो अपनी नज़ीर आप हैं। इन कवियों में मिर्ज़ा अब्दुल क़ादिर ‘बेदिल देहलवी’ मूर्धन्य हैं, जिनकी कविता को ‘ग़ालिब’ ने अपने लिए अन्धे की लकड़ी कहा है।

फ़ारसी चूँकि लोक में नहीं रही इसलिए लोग अब न तो ‘सब्के हिन्दी’ को जानते हैं और न ही उसमें अपूर्व काव्य सृजन करने वाले कवियों को। इसके विषय में जो कुछ परिचयात्मक सामग्री है भी वह फ़ारसी में है शायद थोड़ी उर्दू में भी मिल जाय। हिन्दी में तो इसके सम्बन्ध में सामग्री है ही नहीं।

बड़े ही हर्ष और आत्मसमृद्धि का विषय है कि फ़ारसी कविता की भारतीय शैली पर प्रो॰ वागीश शुक्ल ने अपनी लेखनी चलाई है। उन्होंने अपनी पुस्तक “भारतीय साँचे की फारसी कविता” को अभी अभी लिखकर पूरा किया है। प्रो॰ शुक्ल के बारे में हिन्दी के पाठक अच्छे से जानते ही हैं। अपनी विशद दृष्टि, गम्भीर अध्ययन तथा तीक्ष्ण शोधात्मक प्रवृत्ति के कारण वे जिस भी विषय पर लिखते हैं वह लेखन उस विषय पर लगभग अन्तिम जैसा ही होता है।

उन्होंने अपनी पुस्तक को दो भागों में बाँटा है। इसमें पहला खण्ड ‘सब्के हिन्दी’ के बारे में है। ‘सब्के हिन्दी’ के बारे में जानने योग्य सभी बातों को प्रस्तावना के अनेक खण्डों में चर्चित करते हुए आगे उन्होंने उन्होंने ऐसे ७ अभिलक्षणों की चर्चा की है जो इस शैली के स्वरूपाधायक तत्त्व कहे जा सकते हैं। साथ ही उन्होंने उन अभिलक्षणों की परीक्षा भी की है जिन्हें कुछ आलोचक इस शैली का प्रतिनिधि गुण कहते हैं परन्तु ऐसा नहीं है। सारी चर्चा में प्रचुर फारसी कविताओं को उद्धृत करके उनकी विस्तृत चर्चा की गयी है।

पुस्तक के दूसरे खण्ड में फारसी कविता की भारतीय शैली के सबसे बड़े कवि बेदिल देहलवी के व्यक्तित्व तथा कर्तृत्व पर विशद प्रकाश डाला गया है। हिन्दुस्तान के इतने महान् कवि का परिचय हिन्दी माध्यम में लेकर आना प्रो॰ शुक्ल का उल्लेखनीय कार्य है। मेरा सौभाग्य रहा है कि मैं इस पुस्तक के प्रथम पाठकों में से हुआ।

प्रो॰ शुक्ल का यह कार्य बहुत स्वागत-योग्य इसलिए है क्योंकि यह भारतीय साहित्य के इस महत्त्वपूर्ण अंश का प्रामाणिक परिचय देता हुआ उसकी पुनःप्राप्ति के लिए हमें प्रेरित करता है।

अन्त में प्रो॰ शुक्ल के प्रिय कवि बेदिल का एक शेर। अनुवाद स्वयं उन्हीं का है –

ख़ारिज आहंगे बिसाते कुफ़्रो ईमान–त कि कर्द

बे तकल्लुफ़ ख़ेश रा चूँ नग़्मा ए हरसाज़ बन्द

[(ऐ बेदिल) तुम्हें धर्म और अधर्म के संगीत के (अर्थात्, विवाद और विनिश्चय के) मैदान से बाहर कर दिया गया है। (तुम सत्यासत्य निर्णय के इस व्यर्थ विवाद में न पड़ो, और-) विना किसी हिचक के हर वाद्य यन्त्र की संगत पर गीत गाओ।]

संस्थाने वसन्तः

१. आयां विविक्तं स्वामिच्छन्ननुपद्रुतसाधनाम्।

मां सरागा सुपुष्पिण्यो रुन्धन्तीहापि वीरुधः॥

मैं इस एकान्त में आया

कि मेरी साधना बिना किसी बाधा के चलेगी

लेकिन

यहाँ भी सराग(=रंगीन) पुष्पिणी लताएँ

अपने सौन्दर्य से मुझे बाधित करने लगीं।

२. योऽपि प्रवर्तते कार्ये यथाशक्ति प्रवर्तते।

धन्यैषा समतिक्रम्य शक्तिं वल्ली प्रपुष्पिता॥

जो कोई भी अपने कार्य में लगता है वह अपनी शक्ति भर ही लग पाता है

केवल यह लता सौभाग्यशालिनी है जो अपनी सामर्थ्य से बाहर जाकर खिली हुई है।

३.

अनपेक्ष्य निजं स्थानं निजां शक्तिं निजाकृतिम् ।

पुष्प्यन्ति कलिका भूयो माधवस्पर्शहर्षिताः।।

–––––––––––––––

कलियाँ कहाँ सोचती हैं

कि वे उगी कहाँ हैं

वे समर्थ कितनी हैं

वे लगती कैसी हैं

वे तो वसन्त का स्पर्श पाते ही खुशी के मारे

जहाँ होती हैं, जितनी होती हैं, जैसी होती हैं–

बस खिल उठती हैं

४.

शतप्रसूनसम्पन्ना सहस्रोत्कलिका लता।
करिष्यत्कृतसत्पद्या कविबुद्धिरिवार्घति।।

–––––––––––––

खिले हुए सैकड़ों फूलों से भरी हुई
और, खिलने को तैयार हज़ारों कलियों वाली
लता-
बहुत सी सुन्दर कविताएँ कर चुके
और, बहुत सी और रचने को उद्यत
कवि के मानस की तरह
मूल्यवान् है!

५.

सत्पद्यस्य प्रसूनस्य प्राकट्ये शक्तिमानपि।

सुमनःक्षणसम्पर्कं कविर्द्रुवदुदीक्षते॥

……..

फूलों–फलों को खिलाने में समर्थ होता हुआ भी वृक्ष इसके लिए

जैसे कुसुमकाल वसन्त की प्रतीक्षा करता है।

उसी तरह

सर्वथा समर्थ होता हुआ भी कवि

कविता की प्रस्तुति के लिए सहृदयों के साथ

क्षण भर के सम्पर्क की राह देखता रहता है।

(प्रसून, सुमनस्, प्राकट्य तथा क्षण शब्दों में श्लेष के बल पर उपर्युक्त अर्थगर्भितता सम्भव हो सकी है।)

…….

Though capable of begetting the flower of poetry, the poet, like a tree looks forward to a momentary acquaintance with connoisseurs/the spring season.

(English translation – Dr. Shankar Rajaraman)

६.

सुमनांसि मनांसीव विजयन्ते विपश्चिताम्।

अतारतम्यकोटीनि विकासीनि समन्ततः॥

उन फूलों की विजय हो,

जो विद्वानों की बुद्धि की भाँति

चारों ओर से विकसित होते हैं

जिनका कोई भी आयाम

किसी दूसरे से कम या अधिक खिला नहीं होता।

७.

केनाप्यदृष्टपृष्ठस्य शूरस्य च सुमस्य च।

रणेऽरण्ये च सर्वास्रमुखत्वं श्लाघते मनः।।

मेरी सारी चाटुकारिता

रण में जूझते वीर और

अरण्य में खिले फूल के लिए है

सभी ओर बस

जिनका मुख ही मुख दिखायी देता है

किसी ने जिनकी पीठ नहीं देखी होती है।

८.

वल्ल्यां न यत्र पुष्पाणि तत्र सत्कोरकोत्करः।

स्मितं वितनुते तर्हि यदा न हसति प्रिया।।

लता में

जहाँ जहाँ फूल नहीं हैं

वहाँ वहाँ सुन्दर कलियों के गुच्छे हैं।

वह

जब जब नहीं हँसती

तब तब उसकी मुस्कुराहट फैली रहती है।

(“Wherever there are no flowers in the creeper, there are buds. When my beloved is not laughing, she is smiling.”

Translated by Kavindra Dr. Shankar Rajaraman ji)

(अत्र वाक्ययोः बिम्बप्रतिबिम्बत्वमिष्टम्।

अस्ति वल्ल्यां पुष्पबाहुल्यम् तथा कुड्मलाधिक्यमपि। यत् पुष्पं तत् कुड्मलं न भवितुं शक्नोति। अतः यत्र यत्र लतायां न पुष्पं तत्र तत्र कुड्मलानि।

एवमेव प्रिया

हासशीला स्मितमुखी। प्रायो हसति। यदा न हसति तदा स्मितं कुरुत एव।)

९.

प्रकामहसनां, मध्ये विचेयवचनां प्रियाम्।
क्वाचित्कपर्णा पर्याप्तपुष्पा स्मारयते लता।।

बहुत सारे फूलों से भरी लता
जिसमें पत्ते बस कहीं कहीं हैं
मेरी उस प्रिया की याद दिलाती है
जिसकी बहुत सारी खिलती हँसी के बीच से
बातें चुननी पड़ती थीं

A creeper with leaves few and far between but flowers aplenty reminds me of my beloved whose few words I must search for in the midst of much laughter.

(Kindly translated into English by Dr. Shankar Rajaraman )

१०.

कण्टको गतिहाऽन्यत्र तव वीथ्यां प्रिये पुनः।

स्वयंविशीर्णपुष्पाणि गन्तुं ददति नैव नः।।

और रास्तों में तो

काँटे राह रोकते हैं

लेकिन, प्रिये तुम्हारी गली में

स्वयं गिरकर बिछ गये फूल ही

हमें चलने नहीं देते!

(ज़ेरे क़दम बिछे थे जो गिरकर गुलों के जाल

कहते हैं तेरी राह बिना ही किये सवाल ।। )

११.

संश्यानां वासनावल्लीं वीक्ष्य नैव प्रमाद्यताम्।

कामसामन्तनिर्देशादेषानुग्रन्थि पुष्प्यति।।

शीत से सूख गयी जैसी

वासना की बेलरी को देखकर

असावधान मत हो जाना

कामदेव के सामन्त (=वसन्त)

[अथवा, काम रूपी शासक]

का निर्देश पाते ही

इसकी हर गाँठ फूलों से भर उठेगी!

Don’t be mistaken on seeing this withered vine of desire. It will put forth flowers by the order of king Kama. (or, कामस्य सामन्तः वसन्तः=Kama’s vassal, Vasanta).

[Kindly translated by Dr. Shankar Rajaraman ji ]

जाड़ा और अज्ञान

*जाड्य शब्द के दो अर्थ हैं– जाड़ा और अज्ञान। निश्चलता ठंड और अज्ञान दोनों का लक्षण है। शीत शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ भी सिकुड़ना ही है।

**शास्त्रों में सभी इन्द्रियों को संयत रखने की बात कही गयी है। एक इन्द्रिय का भी अनियन्त्रित रह जाना मशक़ में रह गये एक छिद्र जैसा है, जिससे समस्त विवेक देर सबेर क्षीण हो ही जायेगा। (दे॰ मनुस्मृति २.९९)

इसे ध्यान में रखकर निम्नांकित पद्य पढ़ें –

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अयतैकेन्द्रियजीवाद्

इवानपिहितैकरन्ध्रनीशारात्।

निभृतं प्रविश्य जाड्यं

व्यथयत्यात्मानमिव तनुं शीते॥

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= शीत ऋतु (की रातों) में अगर रजाई का केवल एक कोना भी खुला रह गया तो मानो वह उस जीव (सूक्ष्म शरीर) की तरह हो गया जिसकी केवल एक इन्द्रिय अनियन्त्रित हो।

उस छेद से जाड़ा (जाड्य) चुपके से घुस कर सारे शरीर को वैसे ही कष्ट देने लगता है जैसे जीव के उसी असंयत एक इन्द्रिय के रास्ते अज्ञान (जाड्य) आत्मा पर पूरी तरह से छाकर उसे विमूढ कर देता है।

बच्चा की फ़ोटो हो सकती है

खंधग्गिणा वणेसुं तणेहि गामम्मि रक्खिओ पहिओ |

णअरवसिओ णडिज्जइ साणुसएण व्व सीएण ||गाहासत्तसई १.७७||

………………

(सर्दियों में गाँव से शहर को चला है प्रवासी!)

जंगलों में तो लकड़ी के बोटों की आग से

गाँव में तिनकों और भूसों की आग से उसने अपने को बचा लिया।

लेकिन शहर में ठंड ने उसे दबोच लिया। जैसे अब तक किसी तरह बच जा रहे अपने शिकार से उसे ईर्ष्या हो रही थी।

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रानात मुक्काम होता तेव्हा ओंडक्यांच्या धगीने व खेड्यांत आला तेव्हा गवताच्या शकोटीने पथिकाने थंडीपासून स्वतःचे रक्षण केले. परंतु जसा तो या नगरात आला तसा आतापर्यंत आपल्या तडाख्यातून सुटलेल्या शिकारी प्रमाणे इरेला पेटून रागावलेल्या थंडीने त्याला त्रस्त केले. (जोगळेकरानुसारी मराठी भाषान्तर) Sandeep Joshi

बाहर की फ़ोटो हो सकती है

सहस्रनामभिः शौरे त्वामहं नित्यमाह्वये।

नाम्ना नैकेन मां स्तब्ध प्रतिवक्षि कदाचन॥

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कृष्ण,

मैं प्रतिदिन तुम्हें तुम्हारे हज़ारों नामों से पुकारता हूँ।

और तुम ऐसे ठस कि

मुझे एक नाम से भी कभी उत्तर नहीं देते।

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चित्र– श्रीविष्णुसहस्रनाम की लगभग १६९० ई॰ की पाण्डुलिपि (मेवाड़)

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प्राकृत के आगमेतर ललित काव्यों में ‘सेतुबन्ध’ काव्य का स्थान सबसे ऊपर है। इस काव्य में १५ आश्वासक तथा १,२९१ पद्य हैं। पद्यों में अधिकतर स्कन्धक छन्द का प्रयोग है जो गाहा (आर्या) का एक भेद है। आर॰ सी॰ मजूमदार तथा ए॰एस॰ अल्तेकर का मानना है कि इस काव्य की रचना जिन प्रवरसेन ने की थी वे वाकाटक वंश के राजा प्रवरसेन द्वितीय (४१०–४४० ई॰) थे। फिर भी यह प्रसिद्धि व्यापक है कि इस काव्य की रचना कालिदास ने की थी। जो लोग कालिदास को चौथी शताब्दी का मानते हैं उनके अनुसार प्रवरसेन ने इस काव्य की रचना करके कालिदास से इसकी परिशुद्धि करायी होगी। यद्यपि काव्य को पढ़ने से स्पष्टतः यह रचना कालिदास की नहीं लगती है लेकिन इस व्यापक प्रसिद्धि से कम से कम उन आधुनिक लोगों के मत की निःसारता तो प्रकट हो ही जाती है जो प्राकृत तथा संस्कृत को भिन्न सांस्कृतिक इकाइयाँ मानते हैं, अथवा यह मानते हैं कि संस्कृत का तथाकथित भद्रलोक प्राकृत को निकृष्ट समझता था।

इस काव्य की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। दण्डी ने काव्यादर्श (१.३४) में महाराष्ट्री प्राकृत की प्रशंसा करते हुए उसे इसलिए उत्कृष्ट बताया है क्योंकि उसमें ‘सेतुबन्ध’ जैसा अद्भुत काव्य है। सेतुबन्ध का वास्तविक नाम ‘सेतुबन्ध’ नहीं बल्कि ‘रावणवध’ अथवा ‘दशमुखवध’ है, जैसा कि स्वयं इस काव्य के पुष्पिकात्मक पद्य (१५.९४) से पता चलता है। वस्तुतः, इस पूरे काव्य में वानरों द्वारा समुद्र पर पुल बाँधने का वर्णन इतना भव्य और उत्कट है कि इस समस्त कृति का नाम ‘सेतुबन्ध’ हो गया है। इस नाम की प्रसिद्धि बहुत पहले हो चुकी होगी क्योंकि दण्डी तथा बाण दोनों इस ग्रन्थ को इसी नाम से स्मरण करते हैं। ‘हर्षचरित’ में आरम्भिक १४वें पद्य में बाणभट्ट प्रेक्षित करते हैं कि प्रवरसेन की कीर्ति किस प्रकार समुद्र पार विदेशों तक फैल चुकी थी। कम्बोडिया का प्रवरसेन नाम का एक दूसरा भारतवंशी राजा सेतुबन्धकार से प्रतिस्पर्धा करता हुआ अपने शिलालेख में गर्वोक्तियाँ करता है।

सेतुबन्ध काव्य भारतीय वाङ्मय में बहुत ही प्रसिद्ध रहा है। इसे समझने समझाने की परम्परा किसी शास्त्र की तरह ही विकसित हुई है। इसका पता चलता है सम्राट् अकबर के दरबार में उसके विशेष कृपापात्र रहे राजा रामदास द्वारा लिखी ‘सेतुप्रदीप’ नाम एक टीका से। इसके प्रारम्भ तथा अन्त में अकबर की भूरि भूरि प्रशंसा है। रामदास कहते हैं कि “अकबर अखण्ड पृथ्वी पर शासन करते हुए, गायों को हत्या से बचाते हैं, तीर्थ तथा व्यापार से करों को हटाते हैं, पुराणों को सुनते हैं, सूर्य के नाम का जप करते है, योगसाधना करते हैं और गंगा के अतिरिक्त और किसी जल को नहीं पीते”। (सेतुप्रदीप उपोद्घात पद्य ३)

इस टीका की रचना का समय १५९५-९६ है। वे बार बार अन्यान्य टीकाकारों के सम्प्रदाय-रूढ अर्थों को उद्धृत करते हैं। उनकी टीका समृद्ध और सुन्दर है। रिचर्ड पिशल (प्राकृत भाषाओं का इतिहास, पृ॰ २३) का उनके बारे में यह कहना कि “उन्हें मूल का अर्थ पता नहीं था” उनके प्रति अन्याय है। एक टीका ‘सेतुतत्त्वचन्द्रिका’ इससे भी पहले की है जिसके लेखक के नाम का पता नहीं चल पाया है। इसमें भी कुलनाथ आदि अनेक पूर्ववर्ती टीकाकारों के बार बार उद्धरण आते हैं।

प्रवसरसेन भारतीय साहित्य के उत्कृष्टतम कवियों में से एक हैं। वस्तुतः वे अद्भुत, रौद्र, वीर, भयानक जैसे विकट रसों के सफल प्रयोक्ता हैं। उनकी कविता में इस प्रकार के वर्णन अधिक उभर कर आये भी हैं। प्रेम, विरह, करुणा आदि के प्रसंगों में वे बहुत कुछ नहीं कर पाते। ‘राम के कटे कृत्रिम सिर को देखकर सीता का विलाप’, ‘लक्ष्मण के लिए रामचन्द्र का विलाप’ आदि ऐसे प्रसंगों को देखने से यह बात पुष्ट हो जाती है। लेकिन जब वे राम के क्रोध, समुद्र के उच्छलन, सेतु के बाँधने अथवा विविध युद्धों का वर्णन करते हैं तो उन्हें अपार सफलता मिलती है। इतनी कि जैसे सारा दृश्य ही आँखों के सामने रील की भाँति चलने लगता है। अपनी इस क्षमता को जानते हुए ही उन्होंने रामायण के लंकाकाण्ड से यह विशेष विकट कथावस्तु चुनी है। उत्तम कोटि का कवि वह होता है जो अपने सामर्थ्य को जानता है और लेखनी को अपने क्षेत्र में ही व्यापृत करता है। “कविता में कोई भी वस्तु आ सकती है”, यह समझ कर वह किसी भी वस्तु पर कुछ भी लिखने नहीं लग जाता।

सेतुबन्ध को पूरा पढ़ने की लालसा वर्षों से थी जो आज जाकर पूरी हुई। हृदय कई सप्ताह से सेतुबन्ध के प्रति आश्चर्य और प्रवरसेन के प्रति प्रशंसा से भरा हुआ है। इसी भावना में कविता की प्रशंसा में २ स्कन्धक (खंधआ) लिखे गये, जो आगे दिये जा रहे हैं। स्कन्धक वही छन्द है जिसका प्रयोग सेतुबन्ध में हुआ है। यह आर्या में २ और मात्राएँ मिला देने से बन जाती है (प्राकृतपैङ्गलम् १.७३)।

पुव्वं बन्धइ सेउं पच्छा णिहणेइ दहमुहं दासरही।

दॊण्णि वि समं कुणंतो सलहिज्जउ सो कहं उण पवरसेणो?॥

(पूर्वं बध्नाति सेतुं पश्चात् निहन्ति दशमुखं दाशरथिः।

द्वयमपि समं कुर्वन् श्लाघ्यतां सः कथं पुनः प्रवरसेनः? )

= रामचन्द्र भी पहले समुद्र पर पुल बनाते हैं और बाद में ही रावण को मार पाते हैं, परन्तु प्रवरसेन ‘सेतुबन्ध’ तथा ‘रावणवध’ दोनों एक साथ कर पाते हैं। ऐसे प्रवरसेन की प्रशंसा करने का सामर्थ्य किसमें है?

[वस्तुतः, जैसा कि ऊपर बताया गया ‘सेतुबन्ध’ तथा ‘रावणवध’ एक ही कृति के दो नाम हैं। इसलिए प्रवरसेन दोनों युगपत् कर पाते हैं। ऐसा रामचन्द्र नहीं कर पाते।]

सेउकरणस्स दहमुहवहस्स णिअखन्धएहिँ भारो गरुओ।

को आससिओ सक्कइ संवहिउं? राहवो कइपवरसेणो॥

(सेतुकरणस्य दशमुखवधस्य निजस्कन्धकैः भारो गुरुकः।

कः आश्वस्तः [आश्वासितः] शक्नोति संवोढुम्? राघवः कपिप्रवरसेनः[कविप्रवरसेनः])

[ आन्तं पठितवद्भ्यो नववर्षस्य शुभाशयाः😊😊 ]

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